Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
View full book text
________________
चैत्य व स्तूप
३०१
भगवती व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र (३, २, १४३) में भगवान महावीर के अपनी छंद्मस्थ अवस्था में सुसुमारपुर के उपवन में अशोक वृक्ष के नीचे ध्यान करने का वर्णन है । त्रि०प्र० (४.९१५) में यह भी कहा गया है कि जिस वृक्ष के नीचे जिस केवली को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ, वही उस तीर्थंकर का अशोक वक्ष कह लाया। इस प्रकार अशोक एक वृक्ष विशेष का नाम भी है, व केवलज्ञान संबंधी समस्त वृक्षों की संज्ञा भी । अनुमानत: इसी कारण वृक्षों के नीचे प्रतिमाएं स्था पित करने की परम्परा प्रारम्भ हुई । स्वभावतः वृक्षमूल में मूर्तियां स्थापित करने के लिए वक्ष के चारों ओर एक वेदिका या पीठिका बनाना भी आवश्यक हो गया। यह वेदी इष्टकादि के चयन से बनाई जाने के कारण वे वृक्ष चैत्यवृक्ष कहे जाने लगे होंगे । इष्टकों (ईटी) से बनी वेदिका को चिति या चयन कहने की प्रथा बहत प्राचीन है। वैदिक साहित्य में यज्ञ की वेदी को भी यह नाम दिया गया पाया जाता है। इसी प्रकार चयन द्वारा निर्मापित स्तूप भी चैत्यस्तूप कहलाये।
आवश्यक नियुक्ति (गा० ४३५) में तीर्थंकर के निर्वाण होने पर स्तूप, चैत्य व जिनगृह निर्माण किये जाने का उल्लेख है । इस पर टीका करते हुए हरिभद्र सूरी ने भगवान ऋषभदेव के निर्वाण के पश्चात् उनकी स्मृति में उनके पुत्र भरत द्वारा उनके निर्वाण-स्थान कैलाश पर्वत पर एक चैत्य तथा सिंह-निषद्याआयतन निर्माण कराये जाने का उल्लेख किया है । अर्द्धमागधी जूबदीवपण्णत्ति (२, ३३) में तो निर्वाण के पश्चात् तीर्थकर के शरीर-संस्कार तथा चैत्य-स्तूप निर्माण का विस्तार से वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार है
"तीर्थंकर का निर्वाण होने पर देवेन्द्र ने आज्ञा दी कि गोशीर्ष व चंदन काष्ठ एकत्र कर चितिका बनाओ, क्षीरोदधि से क्षीरोदक लाओ, तीर्थंकर के शरीर को स्नान कराओ, और उसका गोशीर्ष चंदन से लेप करो । तत्पश्चात् शक्र ने हंसचिन्ह-युक्त वस्त्रशाटिका तथा सर्व अलंकारों से शरीर को भूषित किया, व शिविका द्वारा लाकर चिता पर स्थापित किया। अग्निकुमार देव ने चिता को प्रज्वलित किया, और पश्चात् मेघकुमार देव ने क्षीरोदक से अग्नि को उपशांत किया । शक्र देवेन्द्र ने भगवान की ऊपर की दाहिनी व ईशान देव ने बांयी सक्थि (अस्थि) ग्रहण की, तथा नीचे की दाहिनी चमर असुरेन्द्र ने व बांयी बलि ने ग्रहण की । शेष देवों ने यथायोग्य अवशिष्ट अंग-प्रत्यंगों को ग्रहण किया। फिर शक देवेन्द्र ने आज्ञा दी कि एक अतिमहान् चैत्य स्तूप भग वान तीर्थंकर की चिता पर निर्वाण किया जाय; एक गणधर की चिता पर और एक शेष अनगारों की चिता पर । देवों ने तदनुसार ही परिनिर्वाण-महिमा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org