Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन कला
करता है, जो ऊपर की ओर क्रमशः चारों ओर सिकुड़ता जाता है, और ऊपर जाकर एक स्तूपिका का आकार ग्रहण कर लेता है । ये छोटी-छोटी स्तूपिकाएं व शिखराकृतियाँ उसके नीचे के तलों के कोणों पर भी स्थापित की जाती है जिससे मन्दिर की बाह्यकति शिखरमय दिखाई देने लगती है। वेसर शैली के शिखर की आकृति व लाकार ऊपर को उठकर अग्रभाग पर चपटी ही रह जाती है, जिससे वह कोठी के आकार का दिखाई देता है । यह शैली स्पष्टतः प्राचीन चैत्यों की आकृति का अनुसरण करती है । आगामी काल के हिन्दू व जैन मन्दिर इन्हीं शैलियों, और विशेषतः नागर व द्राविड़ शैलियों पर बने पाये जाते हैं।
बोल का मेघटी जैन मन्दिर द्राविड़ शैली का सर्वप्राचीन कहा जा सकता है। इसी प्रकार का दूसरा जैन मन्दिर इसी के समीप पट्टदकल ग्राम से पश्चिम की ओर एक मील पर स्थित हैं । इसमें किसी प्रकार का उत्कीर्णन नहीं है, व प्रांगण का घेरा पूरा बन भी नहीं पाया हैं । किन्तु शिखर का निर्माण स्पष्टतः द्राविड़ी शेली का है जो क्रमशः सिकुड़ती हुई भूमिकाओं द्वारा ऊपर को उठता गया है। क्रमोन्नत भूमिकाओं की कपोत-पालियों में उसकी रूपरेखा का वही आकार-प्रकार अभिव्यक्त होता गया है। सबसे ऊपर सुन्दर स्तूपिका बनी हैं । इस मंदिर के निर्माण का काल भी वही ७ वी ८ वीं शती है । यही शैली मद्रास से ३२ मील दक्षिण की ओर समुद्रतट पर स्थित मामल्लपुर के सुप्रसिद्ध रथों के निर्माण में पाई जाती हैं। वे भी प्रायः इसी काल की कृतियां हैं ।
द्राविड़ शेली का आगामी विकास हमें दक्षिण के नाना स्थानों में पूर्ण व ध्वस्त अवस्था में वर्तमान अनेक जैन मंदिरों में दिखाई देता है। इनमें से यहां केवल कुछ का ही उल्लेख करना पर्याप्त है। तीर्थहल्लि के समीप हवच एक प्राचीन जैन केन्द्र रहा है व सन् ८६७ के एक लेख में वहां के मंदिर का उल्लेख हैं। किन्तु वहाँ के अनेक मंदिर ११ वीं शती में वीरसान्तर आदि सान्तरवंशी राजाओं द्वारा निर्मापित पाये जाते हैं । इनमें वही द्राविड़ शैली, वही अलंकरणरीती तथा सुन्दरता से उत्कीर्ण स्तम्भों की सत्ता पाई जाती है, जो इस काल - की विशेषता है । जैन मठ के समीप आदिनाथ का मंदिर विशेष उल्लेखनीय हैं । यह दुतल्ला हैं। जिसका ऊपरी भाग अभी कुछ काल पूर्व टीन के तख्तों से ढंक दिया गया हैं । बाहरी दीवालों पर अत्युत्कृष्ट प्राकृतियां उत्कीर्ण हैं । किन्तु ये बहुत कुछ घिस व टूट फूट गई हैं । ऊपर के तल्ले पर जाने से मंदिर का शिखर अब भी देखा जा सकता हैं। इस मंदिर में दक्षिण भारतीय शंली को कांस्य मूर्तियों का अच्छा संग्रह हैं । इसी मंदिर के समीप की पहाड़ी पर
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