Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन कला
गोद में बैठाये भद्रासन अम्बिका की प्रतिमा भी है। ये उस काल की जिनमूर्तियों के सामान्य लक्षण प्रतीत होते हैं। केवल दो तीर्थंकरों की मूर्तियाँ अपने किसी विशेष लक्षण से युक्त पाई जाती हैं, वे हैं आदिनाथ, जिनका केशकलाप पीछे की ओर कंधों से नीचे तक बिखरा हुआ दिखाया गया है, और जिनके सिर पर सप्तफणी नाग छाया किये हुए है । मादिनाथ के तपस्याकाल में उनकी लम्बी जटाओं का उल्लेख प्राचीन जैन साहित्य में अनेक स्थानों पर आया है। उदाहरणार्थ रविषेणाचार्य कृत पद्मपुराण (६७६ ई०) में कहा गया है--
वातोद्धृता वटास्तस्य रेजुराकुलमूर्तयः ।
धूमालय इव ध्यान-वन्हिसक्तस्य कर्मणः ॥ (प० पु० ३, २८८) तथा
स रेजे भगवान् दीर्घजटाजालहुतांशुमान् ॥ ( वही ४, ५) उसी प्रकार पार्श्वनाथ तीर्थंकर के नागफण-रूपी छत्र का भी एक इतिहास है, जिसका सुन्दर संक्षिप्त वर्णन समन्तभद्र कृत स्वम्यभूस्तोत्र में इस प्रकार मिलता है
तमालनीलः सघनुस्तडिद्गुरणेः प्रकीर्णभीमाशनि-वायुवृष्टिभिः । बलाहकर्वैरिवर्तरुपद्रतो महामना यो न चचाल योगतः ॥ १३१ ॥ बृहत्फरणामण्डल-मण्डपेन यं स्फूरत्तडित्पिगरुचोपसगिणाम् ।
जुगूह नागो धरणो धराधरं विरागसन्ध्या तडिदम्बुदो यथा जिस समय पार्श्वनाथ अपनी तपस्या में निश्चल भाव से ध्यानारूढ़ थे तब उनका पूर्वजन्म का बैरी कमठासुर नाना प्रकार के उपद्रवों द्वारा उनको ध्यान से विचलित करने का प्रयत्न करने लगा। उसने प्रचण्ड वायु चलाई, घनघोर व ष्टि की, मेघों से वज्रपात कराया, तथापि भगवान् ध्यान से विचलित नहीं हुए। उनकी ऐसी तपस्या से प्रभावित होकर घरगेन्द्र नाग ने पाकर अपने विशाल फणा-मण्डल को उनके ऊपर तान कर, उनकी उपद्रव से रक्षा की। इसी घटना का प्रतीक हम पार्श्वनाथ के नाग-फणा चिन्ह में पाते हैं । कुछ मूर्तियों का परिचय
(१) महाराज वासुदेवकालीन सम्वत्सर ८४ को आदिनाथ को मूर्ति (बी ४)-- मूर्ति ध्यानस्थ पद्मासीन है । यद्यपि मस्तक और बाहु खंडित हैं, तथापि खरौंचा हुआ किनारीदार प्रभावल बहुत कुछ सुरक्षित है। वक्षस्थल
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