Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन मूर्तियां
कल्पना की जाती है । जो हो, इस मूर्ति में हमें जैन, बौद्ध व शैव ध्यानस्थ मूर्तियों का पूर्वरूप स्पष्ट दिखाई देता है । यथार्थतः तो इस प्रकार के आसान से ध्यान का सम्बन्ध जितना श्रमण परम्परा से है, उतना वैदिक परम्परा से नहीं; ओर श्रमण परम्परा की जितनी प्राचीनता जैन धर्म में पाई जाती है, उतनी बौद्ध धर्म में नहीं । मूर्ति के सिर पर स्थापित त्रिशूल उस त्रिशूल से तुलनीय है जो प्रतिप्राचीन जैन तीर्थंकर मूर्तियों के हस्त व चरण तलों पर पाया जाता है, जिसपर धर्मचक्र स्थापित देखा जाता है, और विशेषतः जो रानी - गुम्फा के एक तोरण के ऊपर चित्रित है । इस विषय में यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि पश्चिम भारत से जैन-धर्म का अतिप्राचीन सम्बन्ध पाया जाता है । एवं जिस असुर जाति से सम्बद्ध सिन्धघाटी की सभ्यता अनुमानित की जाती है, उन असुरों, नागों और यक्षों द्वारा जैनधर्म व मुनियों की नाना संकटों की अवस्था में रक्षा किये जाने के उल्लेख पाये जाते है ।
कुषाणकालीन जैन मूर्तियां
इतिहास - कालीन जैन मूर्तियों के अध्ययन की प्रचुर सामग्री हमें मथुरा के संग्रहालय में एकत्रित उन ४७ मूर्तियों में प्राप्त होती है, जिनका व्यवस्थित परिचय डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल ने वहाँ की सूची के तृतीय भाग में कराया है । इनमें से अनेक मूर्तियों के आसनों पर लेख भी खुदे मिले है, जिनसे उनका काल-विभाजन भी सुलभ हो जाता है । कुषाण कालीन मूर्तियों पर पाँचवें से लेकर ६० वें वर्ष तक का उल्लेख है । अनेक लेखों में ये वर्ष शक सम्वत् के अनुमान किये जाते हैं । कुछ लेखों में कुषाणवंशी कनिष्क, हुविष्क व वासुदेव राजाओं का उल्लेख भी हुआ है। तीर्थकरों की समस्त मूर्तियां दो प्रकार की पाई जाती है - एक खड़ी हुई, जिसे कायोत्सर्ग या खड्गासन कहते है, और दूसरी बैठी हुई पद्मासन | समस्त मूर्तियाँ नग्न व नासाग्र दृष्टि, ध्यानमुद्रा में ही है । नाना तीर्थंकरों में भेद सूचित करने वाले वे बैल आदि चिन्ह इन पर नहीं पाये जाते, जो परवर्ती काल की प्रतिमाओं में । अधिकांश मूर्तियों के वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिन्ह पाया जाता है, तथा हस्ततल व चरणतल एवं सिंहासन पर धर्मचक्र, उष्णीष तथा ऊरर्णा ( भौहों के बीच रोमगुच्छ) के चिन्ह भी बहुत सी मूर्तियों में पाये जाते हैं । अन्य परिकरों में प्रभावल ( भामण्डल), दोनों पाव में चमरवाहक तथा सिंहासन के दोनों ओर सिंह भी उत्कीर्ण रहते हैं । कभीकभी ये सिंह आसन को धारण किये हुए दिखाये गये हैं । कुछ मूर्तियों का सिंहासन उठे हुए पद्य ( उत्थित पद्मासन) के रूप में दिखाया गया है । कुछ में तीर्थंकर की मूर्ति पर छत्र भी अंकित है, और एक के सिंहासन पर बालक को
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