Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन मूर्तियाँ
है, और यह भी पता नहीं कि यह कहां से प्राप्त हुई थी । प्रतिमा कायोत्सर्गं मुद्रा में है, और उसका दाहिना हाथ व नागफण खंडित है, किन्तु नाग के शरीर के मोड़ पृष्ठ भाग में पैरों से लगाकर ऊपर तक स्पष्ट दिखाई देते हैं । इसकी आकृति पूर्वोक्त लोहानीपुर की मस्तकहीन मूर्ति से तथा हड़प्पा के लाल-पाषाण की सिर-हीन मूर्ति से बहुत साम्य रखती है । विद्वानों का मत है कि यह मूर्ति मौर्यकालीन होनी चाहिये, और वह ई० पू० १०० वर्ष से इस ओर की तो हो ही नहीं सकती ।
इसी प्रकार की दूसरी धातु प्रतिमा आदिनाथ तीर्थंकर की है, जो बिहार में आरा के चौसा नामक स्थान से प्राप्त हुई है, और पटना संग्रहालय में सुरक्षित है | यह भी खड्गासन मुद्रा में है, और रूप-रेखा में उपर्युक्त पार्श्वनाथ की मूर्ति से साम्य रखती है । तथापि अंगों की आकृति, केश विन्यास एवं प्रभावल की शोभा के आधार पर यह गुप्त-कालीन अनुमान की जाती है । इसी के साथ प्राप्त हुई अन्य प्रतिमाएं पटना संग्रहालय में हैं, जो अपनी बनावट की शैली द्वारा मौर्य व गुप्त काल के बीच की श्रृंखला को प्रकट करती हैं ।
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धातु की वस्त्र जिन - प्रतिमा राजपूताने में सिरोही जनपद के अन्तर्गत वसन्तगढ़ नामक स्थान से मिली है । यह ऋषभनाथ की खड्गासन प्रतिमा है, जिस पर सं० ७४४ ( ई० ६८७ ) का लेख है । इसमें धोती का पहनावा दिखाया गया है । उसकी धोती की सिकुड़न बाएं पैर पर विशेष रूप से दिखाई गयी है । इससे संभवतः कुछ पूर्व की वे पांच घातु प्रतिमाएं हैं जो वलभी से प्राप्त हुई हैं, और प्रिन्स ऑफ वेल्स संग्रहालय में सुरक्षित हैं । ये प्रतिमाएं भी सवस्त्र हैं, किन्तु इनमें धोती का प्रदर्शन वैसे उग्र रूप से नहीं पाया जाता, जैसा वसन्तगढ़ की प्रतिमा में । इस प्रकार की धोती का प्रदर्शन पाषाण मूर्तियों में भी किया गया पाया जाता है, जिसका एक उदाहरण रोहतक (पंजाब) में पार्श्वनाथ की खड्गासन मूर्ति है । प्रिन्स ऑफ वेल्स संग्रहालय की चाहरडी (खानदेश) से प्राप्त हुई आदिनाथ की प्रतिमा १० वीं शती की धातुमय मूर्ति का एक सुन्दर उदाहरण है ।
इसी प्रकार की धातु प्रतिमाओं में वे मूर्तियां भी उल्लेखनीय हैं जो जीवन्त स्वामी की कही जाती हैं । आवश्यकचूण, निशीथचूर्ण व वसुदेव हंडी में उल्लेख मिलता है कि महावीर तीर्थंकर के कुमारकाल में जब वे अपने राज- प्रासाद में ही धर्म-ध्यान किया करते थे, तभी उनकी एक चन्दन की प्रतिमा निर्माण कराई गई थी, जो वोतिभय पट्टन (सिंधु - सौवीर) के नरेश उदयन के हाथ पड़ी । वहां से उज्जैन के राजा प्रद्योत उसकी अन्य काष्ठ-घटित प्रतिकृति (प्रतिमा) को
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