Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन कला
के ट्यूनिक जैसा दिखाई देता है । पाद-पीठ पर एक लेख भी है, जिसके अनुसार "सब जीवों को हित व सुखकारी यह सरस्वती की प्रतिमा सिंहपुत्र-शोभ नामक लुहार कासक (शिल्पी) ने दान किया, और उसे एक जैन मन्दिर की रंगशाला में स्थापित की"। यह मूर्तिदान कोटिक-गण वाचकाचार्य आर्यदेव को संवत् ५४ में किया था। लिपि आदि पर से यह वर्ष शक संवत् का प्रतीत होता है । अतः इसका काल ७८+५४=१३२ ई०, कुषाण राजा हुविष्क के समय में पड़ता है। लेख में जो अन्य नाम आये हैं वे सभी उसी कंकाली टीले से प्राप्त सम्वत् ५२ की जैन प्रतिमा के लेख में भी उल्लिखित हैं। जैन परम्परा में सरस्वती की पूजा कितनी प्राचीन है, यह इस मूर्ति और उसके लेख से प्रमाणित होता है । सरस्वती की इतनी प्राचीन प्रतिमा अन्यत्र कहीं प्राप्त नहीं हुई। इस देवी की हिन्दू मूर्तियां गुप्तकाल से पूर्व की नहीं पायी जाती, अर्थात् वे सब इससे दो तीन शती पश्चात् की है। सरस्वती की मूर्ति अनेक स्थानों के जैन मन्दिरों में प्रतिष्ठित पाई जाती है, किंतु अधिकांश ज्ञात प्रतिमाएं मध्यकाल की निमितियां हैं । उदाहरणार्थ, देवगढ़ के १६ वें मन्दिर के बाहिरी बरामदे में सरस्वती की . खड़ी हुई चतुर्भुज मूर्ति है, जिसका काल वि० सं० ११२६ के लगभग सिद्ध होता है। राजपूताने में सिरोही जनपद के अजारी नामक स्थान के महावीर जैन मन्दिर में प्रतिष्ठित मूर्ति के आसन पर वि० सं० १२६६ खुदा हुआ है। यह मूर्ति कहीं द्विभुज, कहीं चतुर्भुज, कहीं मयूरवाहिनी और कहीं हंसवाहिनी पाई जाती है। एक हाथ में पुस्तक अवश्य रहती है। अन्य हाथ व हाथों में कमल, अक्षमाला, और वीणा, अथवा इनमें से कोई एक या दो पाये जाते हैं, अथवा दूसरा हाथ अभय मुद्रा में दिखाई देता है । जैन प्रतिष्ठा-ग्रन्थों में इस देवी के ये लक्षण भिन्न-भिन्न रुप से पाये जाते हैं । उसकी जटाओं और चन्द्रकला का भी उल्लेख मिलता है । धवला टीका के कर्ता वीरसेनाचार्य ने इस देवी की श्रुत-देवता के रूप में वन्दना की है, जिसके द्वादशांग वाणीरूप बारह अंग हैं, सम्यग्दर्शन रूप तिलक है, और उत्तम चरित्र रूप प्राभूषण है । प्राकोटा से प्राप्त सरस्वती की धातु-प्रतिमा ( १२वीं शती से पूर्व की, बड़ोदा संग्रहालय में ) द्विभुज खड़ी हुई है मुख-मुद्रा बड़ी प्रसन्न है । मुकुट का प्रभावल भी है । ऐसी ही एक प्रतिमा वसन्तगढ़ से भी प्राप्त हुई है। देवियों की पूजा की परम्परा बड़ी प्राचीन है; यद्यपि उनके नामों, स्वरूपों तथा स्थापना व पूजा के प्रकारों में निरतर परिवर्तन होता रहा है। भगवती सूत्र (११, ११, ४२६) में उल्लेख है कि राजकुमार महाबल के विवाह के समय उसे प्रचुर वस्त्राभूषणों के अतिरिक्त श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी, नन्दा और भद्रा की पाठ-पाठ प्रतिमायें भी उपहार रूप दी गई थीं। इससे अनुमानतः विवाह के पश्चात् प्रत्येक
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