Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन चित्रकला
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नाग के वशीकरण की घटना दिखाई गई है। इसकी किनारियों का चित्रण बहुत सुन्दर हुआ है, और वह ईरानी कला से प्रभावित माना जाता है । उसमें अकबरकालीन मुगल शैली का प्रभास मिलता है ।
कागज की उपर्युक्त सचित्र प्रतियां श्वेताम्बर - परम्परा की हैं, जो प्रकाश में आ चुकी हैं, और विशेषज्ञों द्वारा उनके चित्रों का अध्ययन भी किया जा चुका है। दुर्भाग्यतः दिगम्बर जैन भण्डारों की इस दृष्टि से अभी तक खोज शोध होनी शेष है । अनेक शास्त्र भण्डारों में सचित्र प्रतियों का पता चला है । उदाहरणार्थ - बिल्ली के एक शास्त्र भण्डार में पुष्पदंत कृत अपभ्रंश महापुराण की एक प्रति है, जिसमें सैकड़ों चित्र तीर्थंकरों के जीवन की घटनाओं को प्रदर्शित करने वाले विद्यमान हैं। नागौर के शास्त्र भण्डार में एक यशोधरचरित्र की प्रति है, जिसके चित्रों की उसके दर्शकों ने बड़ी प्रशंसा की है । नागपुर के शास्त्र भण्डार से सुगंधदशमी कथा की प्रति मिली है जिसमें उस कथा को उदाहरण करने वाले ७० से अधिक चित्र हैं । बम्बई के ऐलक पन्नाकाल दिगम्बर जैन सरस्वती भवन में भक्तामर स्त्रोत की सचित्र प्रति है जिसमें लगभग ४० चित्र हैं, जिनमें आदिनाथ का चतुर्मुख कमलासन प्रतिfare भी है । इसके एक ओर दिग० साधु व दूसरी ओर कोई मुकुट-धारी नरेश उपासक के रूप में खड़े हैं । नेमीचन्द्र कृत त्रिलोकसार की सचित्र प्रतियां मिलती हैं, जिनमें नेमीचन्द्र व उनके शिष्य महामन्त्री चामुण्डराय के चित्र पाये जाते हैं । इन सब चित्रों के कलात्मक अध्ययन की बड़ी आवश्यकता है । उससे जैन चित्रकला पर प्रकाश पड़ने की ओर भी अधिक आशा की जा सकती है ।
कागज का आधार मिलने पर चित्रकला की रीति में कुछ विकास और परिवर्तन हुआ । ताड़पत्र में विस्तार की दृष्टि से चित्रकार के हाथ बंधे हुए थे । उसे दो-ढाई इंच से अधिक चौड़ा क्षेत्र ही नहीं मिल पाता था । कागज में यह कठिनाई जाती रही, और चित्रण के लिए यथेष्ट लम्बान-चौड़ान मिलने लगा, जिससे रुचि अनुसार चित्रों के बड़े-छोटे आकार निर्माण व सम्पूजन में बड़ी सुविधा उत्पन्न हो गई । रंगों के चुनाव में भी विस्तार हुआ । ताड़पत्र पर रंगों को जमाना एक कठिन कार्य था । कागज रंग को सरलता से पकड़ लेता है । इसके अतिरिक्त सोने-चांदी के रंगों का भी उपयोग प्रारम्भ हुआ । इसके पूर्व सुवर्ण के रंग का भी उपयोग बहुत ही अल्प मात्रा में तूलिका को थोड़ा सा डूबाकर केवल प्राभूषणों के अंकन के लिए किया जाता था । सम्भवतः उस समय सुवर्ण की महंगाई भी इसका एक कारण था । किन्तु इस काल में सुवर्ण
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