Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन मन्दिर
फर्गुसन साहब ने यह भी समझाया है कि किस प्रकार से जैन मंदिर मस्जिदों में विपरिवर्तित किये गये हैं। "प्राबू के विमलवसही की रचना की
ओर ध्यान दीजिये जहां एक विशाल प्रांगण के चारों ओर भमिति और मध्य में मुख्य मंदिर व मंडप है। यह प्राचीन जैन मन्दिरों की साधारण रचना थी। इस मध्य के मन्दिर और मंडप को नष्ट करके तथा देवकूलिकाओं के द्वार बंद कर के एक ऐसा खुला प्रांगण अपने चारों ओर स्तम्भों को दोहरी पंक्ति सहित मिल जाता है, जो मस्जिद का विशेष आकार है। इसमें मस्जिद का एक वैशिष्ट्य रह जाता है, और वह है मक्का (पश्चिम) की ओर उसका प्रमुख द्वार। इस वैशिष्ट्य को इस दिशा के छोटे स्तम्भों को हटाकर उनके स्थान पर मध्य मंडप से सुविशाल स्तम्भों को स्थापित करके प्राप्त किया गया है। यदि मूल में दो मंडप रहे, तो दोनों को उस दरवाजे के दोनों ओर पुनर्निर्मित कर दिया गया। इस प्रकार बिना एक भी नये स्तम्भ के एक ऐसी मस्जिद तैयार हो जाती थी, जो सुविधा और सौन्दर्य की दृष्टि से उनके लिये अपूर्व थी। इस प्रकार के रचना-परिवर्तन के उदाहरण अजमेर का अढ़ाई दिन का झोपड़ा दिल्ली की कुतुबमीनार के समीप की मस्जिद, एवं कन्नौज, मांडू (धार राज्य), अहमदाबाद आदि की मस्जिदें आज भी विद्यमान हैं, और वे मुसलमान काल से पूर्व की जैन वास्तु-कला के अध्ययन के लिये बड़े उपयुक्त साधन है ।" (हिस्ट्री ऑफ इंडिया एन्ड ईस्टर्न आर्किटेक्चर, पृ २६३-६४)
यहां प्रश्न हो सकता है कि क्या देश के बाहर भी जैन मन्दिरों का निर्माण हुआ ? अन्यत्र कहा जा चुका है कि महावंश के अनुसार लंका में बौद्ध धर्म के प्रवेश से बहुत पूर्व ही वहां निर्ग्रन्थ मुनि पहुंच चुके थे, और उनके लिये अनुराधपुर में पांडुकाभय नरेश ने ई० पू० ३६० के लगभग निवास स्थान व देवकुल (मंदिर) निर्माण कराये थे। जावा के ब्रम्बनम् नामक स्थान का एक मंदिरसमूह, फर्गुसन साहब के मतानुसार, मूलतः जैन रहा है । न केवल उसकी मध्यवर्ती मंदिर व भमिति की सैकड़ों देवकुलिकाएं जैन मंदिरों की सुविख्यात शैली का अनुसरण करती हैं, किन्तु उनमें प्रतिष्ठित जिन ध्यानस्थ पद्मासन मूर्तियों को सामान्यतः बौद्ध कहा जाता है, वे सब जिन मूर्तियां ही प्रतीत होती हैं । इतिहास में भले ही इस बात के प्रमाण न मिलें कि जैन धर्म कब जावा द्वीप में पहुंचा होगा, किन्तु यह उदाहरण इस बात का तो प्रमाण अवश्य है कि जैन मंदिरों की वास्तुकला ने दसवीं शती से पूर्व जावा में प्रवेश कर लिया था।
अवनितलगतानां कृत्रिमाकृत्रिमाणां वनभवनगानतां दिव्यवैमानिकानाम् । इह मनुजकृतानां देवराजाचितानां जिनवर-निलयानां भावतोऽहं स्मरामि ।।"
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