Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन कला
सं० १५६ (ई० ४७२) का है । लेख में इस विहार की स्थिति बट-गोहाली में बतलाई गई है। अनुमानत: यह विहार वही होना चाहिये जो पहाड़पुर की खुदाई से प्रकाश में आया है। सातवीं शती के पश्चातू किसी समय इस विहार पर बौद्धों का अधिकार हो गया, और वह सोमपुर महाबिहार के नाम से प्रख्यात हुआ। किन्तु ७ वीं शती में हवेनत्साँग ने अपने यात्रा वर्णन में इस विहार का कोई उल्लेख नहीं किया, जिससे स्पष्ट है कि उस समय तक वह बौद्ध केन्द्र नहीं बना था। बैन्जामिन रोलेन्च (आर्ट एन्ड आर्किटेक्चर ऑफ इन्डिया) के मतानुसार अनुमानत: पहले यह ब्राह्मणों का केन्द्र रहा है, और पीछे इस पर बौद्धों का अधिकार हुआ। किन्तु यह बात सर्वथा इतिहास-विरुद्ध है । एक तो उस प्राचीन काल में उक्त प्रदेश में ब्राह्मणों के ऐसे केन्द्र या देवालय आदि स्थापित होने के कोई प्रमाण नही मिलते; और दूसरे बौद्धों ने कभी ब्राह्मण आयतनों पर अधिकार किया हो, इसके भी उदाहरण पाना दुर्लभ है। उक्त ताम्रपत्र लेख के प्रकाश से यह सिद्ध हो जाता है कि यहां पांचवी शताब्दी में जैन बिहार विद्यमान था, और इस स्थान का प्राचीन नाम वटगोहाली था । सम्भव है यहां उस समय कोई महान् वटवक्ष रहा हो, और उसके आसपास जैन मुनियों के निवास योग्य गुफाओं की आवली (पंक्ति) रही हो, जिससे इसका नाम वट-गोहाली (वट-गुफा-आवली) पड़ गया हो। जैसा अन्यत्र कहा जा चुका है, षट्खडागम के प्रकाण्ड विद्वान टीकाकार वीरसेन और जिनसेन इसी पंचस्तूपान्वय के प्राचियं थे। अतएव यह जैन बिहार विद्या का भी महान् केन्द्र रहा हो तो आश्चर्य नहीं। प्रतीत होता है ई० की प्रारम्भिक शताब्दियों में पूर्व में यह वट-गोहालो बिहार, उत्तर में मथुरा का विहार, पश्चिम में सौराष्ट्र में गिरिनगर की चन्द्रगुफा, और दक्षिण में श्रवण बेलगोला, ये देश की चारों दिशाओं में धर्म व शिक्षा प्रचार के सुदृढ़ जैन केन्द्र रहे हैं ।
खुदाई से अभिव्यक्त पहाड़पुर विहार बड़े विशाल आकार का रहा है, और अपनी रचना व निर्मिति में अपूर्व गिना गया है। इसका परकोटा कोई एक हजार वर्ग का रहा है, जिसके चारों ओर १७५ से. मी. अधिक गुफाकार कोष्ठ रहे है । इस चौक की चारों दिशाओं में एक-एक विशाल द्वार रहा है, और चौक के ठीक मध्य में स्वस्तिक के आकार का सर्वतोभद्र मन्दिर है, जो लगभग साढ़े तीन सौ फुट लम्बा-चौड़ा है। उसके चारों ओर प्रदक्षिणा बनी हुई है। मन्दिर तीन तल्लों का रहा है, जिसके दो तल्ले प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं । विद्वानों ने इस विहार की रचना को बड़ा विलक्षण (अपूर्व) माना है, तथा उसकी तुलना बर्मा के पैगाम तथा जावा के लोरों जोन्प्रांग आदि मन्दिरों से की है। किन्तु स्पष्टतः जैन परम्परा में चतुर्मुखी मंदिरों का प्रचार बराबर चला आया
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