Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन मन्दिर
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की भी है, क्योंकि उसमें जो आदमनाथ की मूर्ति विराजमान हैं वह सिंहासन के प्रमाण से छोटी तथा कला की दृष्टि से सामान्य है। यह मंदिर पार्श्वनाथ मन्दिर के समीप ही उत्तर की ओर स्थित है। इस मन्दिर में भी पूर्वोक्त प्रकार से तीन ही कोष्ठ हैं, जिनमें से अर्द्धमंडप बहुत पीछे का बना हुआ है । इसके प्रवेश द्वार पर चतुर्भुज देवी की मूर्ति है और उससे ऊपर १६ स्वप्नों के चिन्ह उत्कीर्ण हैं । शान्तिनाथ मन्दिर की विशेषता यह है कि उसमें शान्तिनाथ तीर्थकर की १५ फुट ऊंची खड्गासन प्रतिमा विराजमान है, जिसकी प्रतिष्ठा का काल वि० सं० १०८५ ई० (सन् १०२८) अंकित है। इसी से कुछ पूर्व इस मन्दिर का निर्माण हुआ होगा। शेष मन्दिरों का निर्माणकाल भी इसी के कुछ आगे-पीछे का प्रतीत होता है । इस मूर्ति के अतिरिक्त वहां पाई जाने वाली अन्य तीर्थंकरों व यक्ष-यक्षणियों की मूर्तियां कलापूर्ण हैं । तीर्थंकर मूर्तियों के दोनों पावों में प्रायः दो चमर-वाहक, सम्मुख बैठी हुई दो उपासिकाएं तथा मूर्तियों के अगल-बगल कुछ ऊपर हस्ति-आरुढ़ इन्द्र व इन्द्राणी की आकृतियां पाई जाती है, तथा पीठ पर दोनों ओर सिंह की आकृतियाँ भी दिखाई देती हैं। खजराहो के ये समस्त मन्दिर अधिष्ठान से शिखर तक नाना प्रकार की कलापूर्ण आकृतियों से उत्कीर्ण हैं। ___ खजराहो के जैन मन्दिरों की विशेषता यह है कि उनमें मंडप की अपेक्षा शिखर की रचना का ही अधिक महत्व है । अन्यत्र के समान भमिति और देवकुलिकाएं भी नहीं है, तथा रचना व अलंकृति में जिनमूर्तियों के अतिरिक्त अन्य ऐसी विशेषता नहीं है जो उन्हें यहां के हिन्दू व बौद्ध मन्दिरों से पृथक् करती हो । एक ही काल और सम्भवतः उदार सहिष्णु एक ही नरेश के संरक्षण में बनवाये जाने से उनमें विचार-पूर्वक समत्व रखा गया प्रतीत होता है। किन्तु हाँ पाये जाने वाले दो अन्य मन्दिरों के सम्बन्ध में जेम्स फर्गुसन साहब का अभिमत उल्लेखनीय है । चौंसठ योगिनी मन्दिर की भमिति व देव-कुलिकाओं के सम्बन्ध में उनका कहना है कि "मन्दिर निर्माण की यह रौति यहाँ तक जैन विशेषता लिये हुए है कि इसके मूलतः जैन होने में मुझे कोई संशय नहीं है।" मध्यवर्ती मन्दिर अब नहीं है, और फर्गुसन साहब के मतानुसार आश्चर्य नहीं जो वह प्राचीन बौद्ध चैत्यों के समान काष्ठ का रहा हो। और यदि यह बात ठीक हो तो यही समस्त प्राचीनतम जैन मन्दिर सिद्ध होता है। उसी प्रकार घंटाई मन्दिर के अवशिष्ट मंडप को भी वे उसकी रचनाशैली पर से जैन स्वीकार करते हैं। इसमें प्रास खंडित लेख की लिपि पर से कनिंघम साहब ने उसे छठी-सातवीं शती का अनुमान किया है, और फर्गुसन साहब उसकी शैली पर से भी यही काल-निर्णय करते हैं।
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