Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन कला
देवगढ़ से कोई २०० शिलालेख मिले हैं, जिनमें से कोई ६० में उनका लेखन काल भी अंकित हैं, जिनसे वे वि० सं० ६१६ से लेकर वि० सं० १८७६ तक के पाये जाते हैं। तात्पर्य यह कि इस क्षेत्र का महत्व १६ वीं शती तक बना रहा है। लिपि-विकास व भाषा की दृष्टि से भी इन लेखों का बड़ा महत्व हैं।
मध्य भारत का दूसरा देवालय-नगर खजराहो छतरपुर जिले के पन्ना नामक स्थान से २७ मील उत्तर व महोवा से ३४ मील दक्षिण की ओर हैं। यहाँ शिव, विष्णु व जैन मंदिरों की ३० से ऊपर संख्या है। जैन मन्दिरों में विशेष उल्लेखनीय तीन हैं--पार्श्वनाथ, आदिनाथ, और शांतिनाथ-जिनमें प्रथम पार्श्वनाथ सबसे बड़ा हैं । इसकी लम्बाई चौड़ाई ६८X ३४ फुट हैं । इसका मुखमण्डप ध्वस्त हो गया है । महामण्डप, अन्तराल और गर्भगृह सुरक्षित हैं और वे एक ही प्रदक्षिणा-मार्ग से घिरे हुए है । गर्भगृह से सटकर पीछे की ओर एक पृथक् देवालय बना हुआ है, जो इस मन्दिर की एक विशेषता है । प्रदक्षिणा की दीवार में प्राभ्यन्तर की ओर स्तम्भ हैं, जो छत को आधार देते हैं। दीवार में प्रकाश के लिये जालीदार वातायन है। मण्डप की छत पर का उत्कीर्णन उत्कृष्ट शैली का है। छत के मध्य में लोलक को बेल बूटों व उड़ती हुई मानवाकृतियों से अलंकृत किया गया है। प्रवेशद्वार पर गरुड़वाहिनी दशभुज (सरस्वती) मूर्ति भी बड़ी सुन्दर बनी है। गर्भगृह की बाह्य भित्तियों पर अप्सराओं की मूर्तियाँ इतनी सुन्दर हैं कि उन्हें अपने ढंग की सर्वोत्कृष्ट कहा जा सकता है। उत्तर की ओर बच्चे को दूध पिलाती हुई, पत्र लिखती हुई, पैर में से कांटा निकालती हुई एवं शृगार करती हुई स्त्रियों आदि की मूर्तियाँ इतनी सजीव और कलापूर्ण हैं कि वैसी अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। ये सब भाव लौकिक जीवन के सामान्य व्यवहारों के हैं, धार्मिक नहीं। यह इस मन्दिर की कलाकृतियों की अपनी विशेषता हैं। सबसे बाहर की भित्तियों पर निचले भाग में कलापूर्ण उत्कीर्णन हैं और ऊपर की ओर अनेक पट्टियों में तीर्थंकरों एवं हिन्दू देव-देवियों की बड़ी सुन्दर आकृतियां बनी हैं। इस प्रकार इस मन्दिर में हम नाना धर्मों, एवं धार्मिक व लौकिक जीवन का अद्भुत समन्वय पाते हैं । मन्दिर के गर्भगृह में वेदी भी बड़ी सुन्दर आकृति की बनी हैं, और उस पर बैल की आकृति उत्कीर्ण हैं । इससे प्रतीत होता हैं कि आदितः इस मन्दिर के मूल नायक वृषभनाथ तीर्थंकर थे, क्योंकि वृषभ उन्हीं का चिन्ह है। अनुमानतः वह मूर्ति किसी समय नष्ट-भ्रष्ट हो गई और तत्पश्चात् उसके स्थान पर पार्श्वनाथ की वर्तमान मूर्ति स्थापित कर दी गई। मन्दिर व सिंहासन की कलापूर्ण निर्मिति की अपेक्षा यह मूर्ति हीन-कलात्मक है । इससे भी वही बात सिद्ध होती है। ऐसी ही कुछ स्थिति आदिनाथ मंदिर
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