Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन मन्दिर
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योजना व शिल्प का पूर्णज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
यह मन्दिर गुप्त व चालुक्य काल के उक्त शैलियों संबन्धी अनेक उदाहरणों में सबसे पश्चात् कालीन है । अतएव स्वभावत: इसकी रचना में वह शैली अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त हुई पाई जाती है। इसके तंत्र व स्थापत्य में एक विशेष उन्नति दिखाई देती है, तथा पूर्ण मन्दिर की कलात्मक संयोजना में ऐसा संस्कार व लालित्य दृष्टिगोचर होता है जो अन्यत्र नहीं पाया जाता। इसकी भित्तियों का बाह्य भाग संकरे स्तम्भाकार प्रक्षेपों से अलंकृत है और ये स्तम्भ भी कोष्ठकाकार शिखरों से सुशोभित किये गये हैं । स्तम्भों के बीच का भिस्ति भाग भी नाना प्रकार की आकृतियों से अलंकत करने का प्रयत्न किया गया है । मन्दिर की समस्त योजना ऐसी संतुलित व सुसंगठित है कि उसमें पूर्वकालीन अन्य सब उदाहरणों से एक विशेष प्रगति हुई स्पष्ट प्रतीत होती है । मन्दिर लम्बा चतुष्कोण आकृति का है और उसके दो भाग हैं : एक प्रदक्षिणा सहित गर्भगृह व दूसरा द्वारमंडप । मंडप स्तम्भों पर आधारित है, और मूलतः सब ओर से खुला हुआ था; किन्तु पीछे दीवालों से घेर दिया गया है। मंडप और गर्भगृह एक संकरे दालान से जुड़े हुए हैं। इस प्रकार अलंकृति में यह मंदिर अपने पूर्वकालीन उदाहरणों से स्पष्टतः बहुत बढ़ा-चढ़ा है, तथा अपनी निर्मित की अपेक्षा अपने आगे की वास्तुकला के इतिहास पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालने वाला सिद्ध होता हैं।
गुप्त व चालुक्य युग से पश्चात्कालीन वास्तुकला की शिल्प-शास्त्रों में तीन शैलियां निर्दिष्ट की गई हैं-नागर, द्राविड़ और वेसर । सामान्यतः नागरशैली उत्तर भारत में हिमालय से विन्ध्य पर्वत तक प्रचलित हुई । द्राविड़ दक्षिण में कृष्णानदी से कन्याकुमारी तक, तथा वेसर मध्य-मारत में विन्ध्य पर्वत और कृष्णानदी के बीच । किन्तु यह प्रादेशिक विभाग कड़ाई से पालन किया गया नहीं पाया जाता। प्रायः सभी शैलियों के मन्दिर सभी प्रदेशों में पाये जाते हैं, तथापि आकृति-वैशिष्ट्य को समझने के लिये यह शैली-विभाजन उपयोगी सिट हुआ है । यद्यपि शास्त्रों में इन शैलियों के भेद विन्यास, निर्मिति तथा अलंकृति की छोटी छोटी बातों तक का निर्देश किया गया है; तथापि इनका स्पष्ट भेद तो शिखर की रचना में ही पाया जाता है। नागरशैली का शिखर गोल आकार का होता है, जिसके अग्रभागपर कलशाकृति बनाई जाती है। आदि में सम्भवतः इस प्रकार का शिखर केवल वेदी के ऊपर रहा होगा; किन्तु क्रमशः उसका इतना विस्तार हुआ कि समस्त मन्दिर की छत इमी आकार की बनाई जाने लगी। यह शिखराकति औरों की अपेक्षा अधिक प्राचीन व महत्वपूर्ण मानी गई है। इससे भिन्न द्राविड़ शैली का मन्दिर एक स्तम्भाकृति ग्रहण
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