Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
View full book text
________________
गुफाएं
जैन धर्म का एक सुदृढ़ केन्द्र रहा है ।
राजगिरि की एक पहाड़ी में मनियार मठ के समीप सोन भंडार नामक जैनगुफा उल्लेखनीय है । निर्माण की दृष्टि से यह अतिप्राचीन प्रतीत होता है । प्र०-द्वि० शती का ब्राह्मी लिपि का एक लेख भी है जिसके अनुसार प्राचार्य रत्न वैरदेवमुनि ने यहां जैन मुनियों के निवासार्थ दो गुफाएं निर्माण करवाई, और उनमें अर्हन्तों की मूर्तियां प्रतिष्ठित कराई । एक जैनमूर्ति तथा चतुर्मुखी जैनप्रतिमा युक्त एक स्तम्भ वहाँ अब भी विद्यमान हैं । जिस दूसरी गुफा के निर्माण का लेख में उल्लेख है, वह निश्चयतः उसके ही पार्श्व में स्थित गुफा है, जो अब विष्णु की गुफा बन गई है । दिगम्बर परम्परा में वैरजस का नाम आता है, और वे त्रिलोकप्रज्ञप्ति में प्रज्ञाश्रमणों में अन्तिम कहे गये हैं । श्वे० परम्परा में अज्ज - र का नाम आता है, और वे पदानुसारी कहे गये हैं । प्रज्ञाश्रमणत्व और पदानुसारित्व, ये दोनों बुद्धि ऋद्धि के उपभेद हैं, और षठ्खंडागम के वेदनाखंड में पदानुसारी तथा प्रज्ञाश्रमण दोनों को नमस्कार किया गया है । इसप्रकार ये दोनों उल्लेख एक ही प्राचार्य के हों तो आश्चर्य नहीं । कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार श्रावेर का काल वीर निर्वाण से ४९६ से लेकर ५८४ वर्ष तक पाया जाता है, जिसके अनुसार वे प्रथम शती ई० पू० व पश्चात् के सिद्ध होते हैं । सोन भंडार गुफा उन्हीं के समय में निर्मित हुई हो तो आश्चर्य नहीं ।
प्रयाग तथा कौसम (प्राचीन कौशाम्बी) के समीपवर्ती पभोसा नामक स्थान में दो गुफाएं हैं, जिनमें शुंग-कालीन ( ई० पू० द्वितीय शती) लिपि में लेख हैं । इन लेखों में कहा गया है कि इन गुफाओंों को अहिच्छत्रा के आषाढ़सेन ने काश्यपीय अर्हन्तों के लिये दान किया । ध्यान रखना चाहिये कि तीर्थंकर महावीर कश्यप गोत्रीय थे । सम्भव है उन्हीं के अनुयायी मुनि काश्यपीय अर्हत् कहलाते थे । इससे यह भी अनुमान होता है कि उस काल में महावीर के अनुयाइयों के अतिरिक्त भी कोई अन्य जैनमुनि संघ सम्भवत पार्श्वनाथ के अनुयाइयों का रहा होगा जो क्रमशः महावीर की मुनि परम्परा में ही विलीन हो गया ।
३०६
जूनागढ़ (कठियावाड़) के बाबा प्यारामठ के समीप कुछ गुफाएं हैं, जो तीन पंक्तियों में स्थित हैं । एक उत्तर की भोर, दूसरी पूर्व भाग में और तीसरी उसी के पीछे से प्रारम्भ होकर पश्चिमोत्तर की ओर फैली है । ये सब गुफाएं दो भागों में विभक्त की जा सकती हैं - एक तो चैत्य- गुफाएं और तत्संबंधी साधारण कोठरियां हैं जो वर्जेस साहब के मतानुसार सम्भवतः ई० पू० द्वितीय शती की है, जबकि प्रथम बार बौद्ध भिक्षु गुजरात में पहुंचे। दूसरे भाग में वे गुफाएं व शालागृह हैं जो प्रथमभाग की गुफाओं से कुछ उन्नत शैली के बने हुए हैं;
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org