Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन दर्शन
काल-द्रव्य
पांचवां अजीव द्रव्य काल है, जिसका स्वरूप दो प्रकार से निरूपण किया गया है-एक निश्चयकाल और दूसरा व्यवहारकाल। निश्चयकाल अपनी द्रव्यात्मक सत्ता रखता है, और वह धर्म और अधर्म द्रव्यों के समान समस्त लोकाकाश में व्याप्त है । तथापि उक्त समस्त द्रव्यों से उसकी अपनी एक विशेषता यह है कि वह उनके समान अस्तिकाय अर्थात् बहुप्रदेशी नहीं है, उसके एक-एक प्रदेश एकत्र रहते हुए भी अपने-अपने रूप में पृथक् हैं; जिस प्रकार कि एक रत्नों की राशि, अथवा बालुकापुज, जिसका एक-एक कण पृथक्-पृथक ही रहता है, और जल या वायु के समान एक कार्य निर्माण नहीं करता । ये एकएक काल-प्रदेश समस्त पदार्थों में व्याप्त हैं, और उनमें परिणमन अर्थात पर्याय परिवर्तन किया करते हैं। पदार्थों में कालकृत सूक्ष्मतम विपरिवर्तन होने में अथवा पुद्गल के एक परमाणु को आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाने के लिये जितना अध्वान या अवकाश लगता है, वह व्यवहार काल का एक समय है । ऐसे असंख्यात समयों की एक आवलि, संख्यात आवलियों का एक उच्छवास सात उच्छ्वासों का एक स्तोक, सात स्तोकों का एक लव, ३८३ लवों की एक नाली, २ नालियों का एक मुहूर्त और ३० मुहूर्त का एक अहोरत्र होता है । अहोरात्र को २४ घंटे का मानकर उक्त क्रम से १ उच्छ्वास का प्रमाण एक सेकंड का २८८०/३७७३ वां अंश अर्थात् लगभग ३/४ सेकंड होता है । इसके अनुसार एक मिनट में उच्छ्वासों की संख्या ७८.६ आती है, जो आधुनिक वैज्ञानिक व प्रायोगिक मान्यता के अनुसार ही है । आवलि व समय का प्रमाण सेकंड सिद्ध होता है। अहोरात्र से अधिक की कालगणना पक्ष मास ऋतु, अयन, वर्ष, युग, पूर्वाग, पूर्व, नयुतांग, नयुत, आइक्रम से अचलप तक की गई है जो ८४ को ८४ से ३१ वार गुणा करने के बराबर आती है । ये सब संख्यातकाल के भेद हैं, जिसका उत्कृष्ट प्रमाण इससे कई गुणा बड़ा है। तत्पश्चात् असंख्यात-काल प्रारम्भ होता है, और उसके भी जघन्य, मध्यम, और उत्कृष्ट भेद बतलाये गये हैं। उसके ऊपर अनन्तकाल का प्ररूपण किया गया है. और उसके भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद बतलाये गये हैं। जिस प्रकार यह व्यवहार-काल का प्रमाण उत्कृष्ट अनन्त (अनन्तानन्त) तक कहा गया है, उसी प्रकार आकाश के प्रदेशों का, समस्त द्रव्यों के अविमागी प्रतिच्छेदों का, एवं केवल ज्ञानी के ज्ञान का प्रमाण भी अनन्तानन्त कहा गया है।
द्रव्यों के सामान्य लक्षण
जैन दर्शनानुसार ये ही जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश और काल
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