Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन दर्शन
दृष्टि से समझने का प्रयत्न करते हैं । जब हम कहते हैं कि यहां के सभी प्रदेशों के वासी, सभी जातियों के, और सभी पंथों के चालीस करोड़ मनुष्य भारतवासी होने की अपेक्षा एक हैं, अथवा भारतवासी और चीनी दोनों एशियाई होने के कारण एक हैं, अथवा सभी देशों के समस्त संसारवासी जन एक ही मनुष्य जाति के हैं, तब ये सभी बातें संग्रहनय की अपेक्षा सत्य है । इसके विपरीत जब हम मनुष्य जाति को महाद्वीपों की अपेक्षा एशियाई, यूरोपीय, अमेरिकन आदि भेदों में विभाजित करते हैं, तथा इनका पुनः अवान्तर प्रदेशों एवं प्रान्तीय राजनैतिक, धार्मिक, जातीय आदि उत्तरोत्तर अल्प-अल्पतर वर्गों में विभाजन करते हैं, तब हमारा अभिप्राय व्यवहार नयात्मक होता है । इस प्रकार संग्रह
और व्यवहारनय परस्पर सापेक्ष हैं, और विस्तार व संकोचात्मक दृष्टियों को प्रकट करने वाले हैं । दोनों सत्य हैं, और दोनों अपनी-अपनी सार्थकता रखते हैं। उनमें परस्पर विरोध नहीं, किन्तु वे एक दूसरे के परिपूरक हैं, क्योंकि हमें अभेददृष्टि से संग्रह नय का, व भेद दृष्टि से व्यवहार नय का आश्रय लेना पड़ता है। ये नैगमादि तीनों नय द्रव्याथिक माने गये हैं; क्योंकि इनमें प्रतिपाद्य वस्तु की द्रव्यात्मकता का ग्रहण कर विचार किया जाता है, और उसकी पर्याय गौण रहता है । ऋजुसूत्रादि अगले चार नय पर्यायाथिक कहे गये हैं, क्योंकि उनमें पदार्थों की पर्याय-विशेष का ही विचार किया जाता है।
__ यदि कोई मुझसे पूछे कि तुम कौन हो, और मैं उत्तर दूं कि मैं प्रवक्ता हूं, तो यह उत्तर ऋजुसूत्र नय से सत्य ठहरेगा; क्योंकि मैं उस उत्तर द्वारा अपनी एक पर्याय या अवस्था-विशेष को प्रकट कर रहा हूँ, जो एक काल-मर्यादा के लिये निश्चित हो गई हैं। इस प्रकार वर्तमान पर्यायमात्र को विषय करने वाला नय ऋजुसूत्र कहलाता है । अगले शब्दादि तीन नय विशेष रूप से सम्बन्ध शब्द-प्रयोग से रखते हैं। जो एक शब्द का एक वाच्यार्थ मान लिया गया है, उसका लिंग या वचन भी निश्चित हैं, वह शन्दनय से यथोचित माना जाता है। जब हम संस्कृत में स्त्री के लिये कलत्र शब्द का नपुसक लिंग में, अथवा दारा शब्द का पुलिंग और बहुवचन में प्रयोग करते हैं, एवं देव और देवी शब्द का इनके वाच्यार्थ स्वर्गलोक के प्राणियों के लिये ही करते तब यह सब शब्दनय की अपेक्षा से उपर्युक्त सिद्ध होता है। इसी प्रकार व्युत्पत्ति की अपेक्षा भिन्नार्थक शब्दों को जब हम रूढ़ि द्वारा एकार्थवाची बनाकर प्रयोग करते हैं, तब यह बात सममिरुढ़ नय की अपेक्षा उचित सिद्ध होती है। जैसे-देवराज के लिये इन्द्र, पुरन्दर या शक्र; अथवा घोड़े के लिये अश्व, अवं, गन्धर्व, सैन्धव आदि
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