Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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मध्य में एक-एक पर्वत है जो दधि के समान श्वेतवण होने के कारण दधिमुख कहलाता है । वह गोलाकार है, व उसके ऊपरी भाग में तटवेदियां और वन हैं । नंदादि चारों वापियों के दोनों बाहरी कोनों दर एक-एक सुवर्णमय गोलाकार रतिकर नामक पर्वत है । इस प्रकार एक-एक दिशा में एक अंजनगिरि, चार दधिमुख व आठ रतिकर, इस प्रकार कुल मिलाकर तेरह पर्वत हुए । इसी प्रकार के १३- १३ पर्वत चारों दिशाओं में होने से कुल पर्वतों की संख्या ५२ हो जाती है । इन पर एक-एक जिनमंदिर स्थापित है, और ये ही नंदीश्वर द्वीप के ५२ मंदिर या चैत्यालय प्रसिद्ध हैं । जिस प्रकार पूर्व की दिशा चार वापियों के पूर्वोक्त नंदादिक चार नाम हैं, उसी प्रकार दक्षिण दिशा की चार वापिकाओं के नाम अरजा विरजा अशोका और वीतशोका, पश्चिम दिशा के विजया, वैजयन्ती, जयन्ती व अपराजिता; तथा उत्तर दिशा के रम्या, रमणीया, सुप्रभा व सर्वतोभद्रा ये नाम हैं । प्रत्येक वापिका के चारों ओर जो अशोकादि वृक्षों के चार-चार वन हैं, उनकी चारों दिशाओं की संख्या ६४ होती है । इन वनों में प्रत्येक के बीच एक-एक प्रासाद स्थित है, जो आकार में चौकोर तथा ऊंचाई में लंबाई से दुगुना कहा गया है । इस प्रासादों में व्यन्तर देव अपने परिवार सहित रहते हैं । (त्रि० प्र० ५, ५२-८२) वर्तमान जैन मंदिरों में कहीं-कहीं नंदीश्वर पर्वत के ५२ जिनालयों की रचना मूर्तिमान् अथवा चित्रित की हुई पाई जाती है । हाल ही में सम्मेदशिखर ( पारसनाथ ) की पहाड़ी के समीप पूर्वोक्त प्रकार से ५२ जिन मंदिरों युक्त नंदीश्वर की रचना की गई है ।
समवसरण रचना
समवसरण रचना
तीर्थंकर को केवलज्ञान उत्पन्न होने पर इन्द्र की आज्ञा से कुबेर उनके समवसरण अर्थात् सभाभवन की रचना करता है, जहां तीर्थंकर का धर्मोपदेश होता है । समवसरण की रचना का बड़े विस्तार से वर्णन मिलता है, और उसी के आधार से जैन वास्तुकला के नाना रूप प्रभावित हुए पाये जाते हैं । त्रि० प्र० ( ४,७११ - ९४२ ) में समवसरण संबंधी सामान्य भूमि, सोपान, वीथि, धूलिशाल, चैत्य प्रासाद, नृत्यशाला, मानस्तंभ, स्तूप, मंडप, गंधकुटी आदि के विन्यास, प्रमाण, आकार आदि का बहुत कुछ वर्णन पाया जाता है । वही वर्णन जिनसेन कृत आदिपुराण ( पर्व २३ ) में भी आया है । समवसरण की रचना लगभग बारह योजन आयाम में सूर्यमण्डल के सदृश गोलाकार होती है । उसका पीठ इतना ऊंचा होता हैं कि वहां तक पहुंचने के लिये समवसरण भूमि की चारों दिशाओं में एक-एक हाथ ऊंची २००० सीढ़ियां होती हैं । वहां से आगे वीथियां
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