Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन कला
की ऊंचाई ७५ धनुष अर्थात् लगभग ५०० फुट बतलाई गई है । गंध कुटी के मध्य में उत्तम सिंहासन होता है, जिसपर विराजमान होकर तीर्थकर धर्मोपदेश देते हैं। नगर विन्यास
जैनागमों में देश के अनेक महान् नगरों, जैसे चंपा, राजगृह, श्रावस्ती, कौशांबी, मिथिला आदि का बार-बार उल्लेख पाया है; किन्तु उनका वर्णन एकसा ही पाया जाता है । यहां तक कि पूरा वर्णन तो केवल एकाध सूत्र में ही दिया गया है, और अन्यत्र 'वण्णो ' (वर्णन) कहकर उसका संकेत मात्र कर दिया गया है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उस काल के उन नगरों की रचना प्रायः एक ही प्रकार की होती थी। उस नगर की रचना व स्वरूप को पूर्णतः समझने के लिये यहां उववाइय सूत्र (१) से चंपा नगरी का पूरा वर्णन प्रस्तुत किया जाता है
"चंपानगरी धन-सम्पत्ति से समृद्ध थी, और नगरवासी खूब प्रमुदित रहते थे । वह जनता से भरी रहती थी। उसके आसपास के खेतों में हजारों हल चलते थे, और मुर्गों के झुड के झंड चरते थे। व गन्ने, जौ व धान से भरपूर थी। वहाँ गाय, भैस, व भेड़-बकरियां प्रचुरता से विद्यमान थीं। वहां सुन्दर प्राकार के बहुत से चैत्य बने हुए थे, और सुन्दरी शीलवती युवतियां भी बहुत थी। वह सबोर, बटमार, गंठमार, दुःसाहसी, तस्कर, दुराचारी व राक्षसों से रहित होने से क्षेम व निरुपद्रव थी। वहां भिक्षा सुख से मिलती थी, और लोग निश्चित होकर सुख से निवास करते थे। करोड़ों कुटुम्ब वहां सुख से रहते थे । वहाँ नटों, नर्तकों, रस्से पर खेल करने वाले नट, मल्ल, मुष्टियुद्ध करने वाले (बोक्सर्स), नकलची (विदूषक), कथक, कूदने वाले, लास्यनृत्य करने वाले आख्यायक, मंख (चित्रदर्शक), लंख (बड़े बांस के ऊपर नाचने वाले), तानपूरा, तुबी व वीणा बजाने वाले तथा नाना प्रकार के वादित्र बजाने वाले पाते जाते रहते थे । वहाँ आराम, उद्यान, कूप, तालाब, दीपिका व वापियाँ भी खूब थी, जिनसे वह नंदनवन के समान रमणीक थी। वह विपुल और गंभीर खाई से घिरी हुई थीं। चक्र, गदा, मुसुठि (मूठ), अवरोध, शतघ्नी तथा दृढ़ सघन कपाटों के कारण उसमें प्रवेश करना कठिन था। वह धनुष के समान गोलाकार प्राकार से घिरी हुई थी, जिसपर कपिशीर्षक (कंगूरे) और गोल गुम्मट बने हुए थे । वहाँ ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं, चरियापथ, द्वार, गोपुर, तोरण तथा सुन्दर रीति से विभाजित राजमार्ग थे । प्राकार तथा गृहों के परिष व इन्द्रखील (लंगर व चटकिनी) कुशल कारीगरों द्वारा निर्माण किये गये थे।
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