Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन दर्शन
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एवं सुविस्तृत विवेचन किया गया है; जिससे जैन शास्त्रकारों के वैयक्तिक श्रीर सामाजिक जीवन के शोधन के प्रयत्न का पता चलता है । उन्होंने प्रथम तो यह अनुभव किया कि सब के लिये सब अवस्थाओं में इन व्रतों का एकसा परिपालन सम्भव नहीं हैं; अतएव उन्होंने इन व्रतों के दो स्तर स्थापित किये-अतु और महत् अर्थात् एकांश और सर्वांश । गृहस्थों की आवश्यकता और अनिवार्यता का ध्यान रखकर उन्हें इनका आंशिक अणुव्रत रूप से पालन करने का उपदेश किया; और त्यागी मुनियों को परिपूर्ण महाव्रत रूप से। इन व्रतों के द्वारा जिस प्रकार पापों के निराकरण का उपदेश दिया गया है, उसका स्वरूप संक्षेप में निम्न प्रकार है ।
अहिंसाणुव्रत -
प्रमाद के वशीभूत होकर प्राणघात करना हिंसा है । प्रमाद का अर्थ है-मन को रागद्वेषात्मक कषायों से अछूता रखने में शिथिलता; और प्राण घात से तात्पर्य है, न केवल दूसरे जीवों को मार डालना, किन्तु उन्हें किसी प्रकार की पीड़ा पहुंचाना । इस हिंसा के दो भेद हैं- द्रव्यहिंसा और भावहिंसा | अपनी शारीरिक क्रिया द्वारा किसी जीव के शरीर को प्राणहीन कर डालना, या वधबन्धन आदि द्वारा उसे पीड़ा पहुंचाना द्रव्य हिंसा है; और अपने मन में किसी जीव की हिंसा का विचार करना भावहिंसा है यथार्थः पाप मुख्यत: इस भाव हिंसा में ही है, क्योंकि उसके द्वारा दूसरे प्राणी की हिंसा हो या न हो चिन्तक के स्वयं विशुद्ध अंतरंग का घात तो होता ही है । इसीलिये कहा है:
स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् ।
पूर्व प्राण्यन्तराणां तु पश्चात्स्याद्वा ना वधः ॥ ( सर्वार्थसिद्धि सू० ७,१३ )
अर्थात् प्रमादी मनुष्य अपने हिंसात्मक भाव के द्वारा आप ही अपने की हिंसा पहले ही कर डालता है; तत्पश्चात् दूसरे प्राणियों का उसके द्वारा वध हो या न हो। इसके विपरीत यदि व्यक्ति अपनी भावना शुद्ध रखता हुआ शक्ति भर जीव रक्षा का प्रयत्न करता है, तो द्रव्यहिंसा हो जाने पर भी वह पाप का भागी नहीं होता । इस सम्बन्ध में दो प्राचीन गाथाएं उल्लेखनीय हैं -
उच्चादिम्मि पादे इरियासमिदस्त रिगग्गमद्वारो ।
श्रावादेज्ज कुलिंगो मरेज्ज तं जोगमासेन ॥ १ ॥
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