Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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श्रावक धर्म
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आदितः जो श्रमण-परम्परा का वैदिक परम्परा से विरोध रहा, वह इस अहिंसा की नीति को लेकर । धार्मिक विधियों में नरबलि का प्रचार तो बहुत पहिले उत्तरोत्तर मन्द पड़ गया था; किन्तु पशुबलि यज्ञक्रियाओं का एक सामान्य अंग ' बना रहा । इसका श्रमण साधु सदैव विरोध करते रहे। आगे चलकर श्रमणों के जो दो विभाग हुए, जैन और बौद्ध, उन दोनों में अहिंसा के सिद्धान्त पर जोर दिया गया जो अभी तक चला आता है। तथापि बौद्धधर्म में अहिंसा का चिन्तन, विवेचन व पालन बहुत कुछ परिमित रहा। परन्तु यह सिद्धान्त जैनधर्म में समस्त सदाचार की नींव ही नहीं, किन्तु धर्म का सर्वोत्कृष्ट अंग बन गया । अहिंसा परमो धर्मः वाक्य को हम दो प्रकार से पढ़ सकते हैं-तीनों शब्दों को यदि पृथक्-पृथक् पढ़ें तो उसका अर्थ होता है कि अहिंसा ही परम धर्म है; और यदि अहिंसा-परमो को एक समास पद मानें तो वह वाक्य धर्म की परिभाषा बन जाता है, जिसका अर्थ होता है कि धर्म वही है जिसमें अहिंसा को श्रेष्ठ स्थान प्राप्त हो । समस्त जैनाचार इसी अहिंसा के सिद्धांत पर अवलम्बित है; और जितने भी आचार सम्बन्धी व्रत नियमादि निर्दिष्ट किये गये हैं, वे सब अहिंसा के ही सर्वांग परिपालन के लिये हैं । इसी तथ्य को मनुस्मृति (२, १५६) की इस एक ही पंक्ति में भले प्रकार स्वीकार किया गया है- अहिंसयैव भूतानां कार्य श्रेयोऽनुसशानम् । श्रावक-धर्म- मुख्य व्रत पांच हैं-अहिंसा, अमृषा, अस्तेय, अमैथुन और अपरिग्रह । इसका अर्थ है हिंसा मत करो, झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, व्याभिचार मत करो, और परिग्रह मत रखो। इन व्रतों के स्वरूप पर विचार करने से एक तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इन व्रतों के द्वारा मनुष्य की उन वृत्तियों का नियंत्रण करने का प्रयत्न किया गया है, जो समाज में मुख्य रूप से वैर-विरोध की जनक हुआ करती हैं। दूसरी यह बात ध्यान देने योग्य है कि आचरण का परिष्कार सरलतम रीति से कुछ निषेधात्मक नियमों के द्वारा ही किया जा सकता है। व्यक्ति जो क्रियाएं करता है, वे मूलत: उसके स्वार्थ से प्रेरित होती हैं । उन क्रियाओं में कौन अच्छी है, और कौन बुरी, यह किसी मापदंड के निश्चित होने पर ही कहा जा सकता है। हिंसा, चोरी, झूठ, कुशील और परिग्रह, ये सामाजिक पाप ही तो हैं। जितने ही प्रश में व्यक्ति इनका परित्याग, उतना ही वह सभ्य और समाज-हितैषी माना जायगा; और जितने व्यक्ति इन व्रतों का पालन करें उतना ही समाज शुद्ध, सुखी और प्रगतिशील बनेगा। इन व्रतों पर जैन शास्त्रों में बहुत अधिक भार दिया गया है, और उनका सूक्ष्म
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