Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन दर्शन
और दूसरी ओर जीवों की घोर दुःख उत्पन्न करनेवाली प्रवृत्तियां स्पष्टतः सम्मुख आ जाती हैं। इस नई दृष्टि के फलस्वरूप उसकी अपनी वृत्ति में जो सम्यक्त्व के उपर्युक्त चार लक्षण-प्रशम, संवेग अनुकम्पा और श्रास्तिक्य प्रगट होते हैं, उससे उनकी जीवनधारा में एक नया मोड़ आ जाता है; और वह दुराचरण छोड़कर सदाचारी बन जाता है । इस सदाचार की मूल प्रेरक भावना होती हैं-- अपना और पराया हित व कल्याण । श्रात्महित से परहित का मेल बैठाने में जो कठिनाई उपस्थित होती है, वह है विचारों की विषमता और क्रिया - स्वातंत्र्य | विचारों की विषमता दूर करने में सम्यग्ज्ञानी को सहायता मिलती है स्याद्वाद व अनेकान्त की सामंजस्यकारी विचार-शैली के द्वारा; और आचरण की शुद्धि के लिये जो सिद्धान्त उसके हाथ आता है, वह है अपने समान दूसरे की रक्षा का विचार अर्थात् अहिंसा ।
अहिंसा
जीव जगत् में एक मर्यादा तक अहिंसा की प्रवृत्ति स्वाभाविक है । पशु-पक्षी और उनसे भी निम्न स्तर के जीव-जन्तुओं में अपनी जाति के जीवों मारने व खाने की प्रवृत्ति प्रायः नहीं पाई जाती । सिंह, व्याघ्रादि हिंस्र प्राणी भी अपनी सन्तति की तो रक्षा करते ही हैं; और अन्य जाती के जीवों को भी केवल तभी मारते हैं, जब उन्हें भूख की वेदना सताती है । प्राणिमात्र में प्रकृति की अहिंसोन्मुख वृत्ति की परिचायक कुछ स्वाभाविक चेतनाएं पाई जाती हैं, जिनमें मैथुन. संतान पालन, सामूहिक जीवन आदि प्रवृत्तियाँ प्रधान हैं । प्रकृति में यह भी देखा जाता है कि जो प्राणी जितनी मात्रा में अहिंसकवृत्ति का होता है, वह उतना ही अधिक शिक्षा के योग्य व उपयोगी सिद्ध हुआ है । बकरी, गाय, घोड़ा, ऊंट, हाथी आदि पशु मांसभक्षी नहीं हैं, और इसीलिये वे मनुष्य के व्यापारों में उपयोगी सिद्ध हो सके हैं । यथार्थतः उन्हीं में प्रकृति की शीतोष्ण श्रादि द्वन्द्वात्मक शक्तियों को सहने और परिश्रम करने की शक्ति विशेष रूप में पाई जाती है । वे हिंस्र पशुओं से अपनी रक्षा करने के लिये दल बांध कर सामूहिक शक्ति का का उपयोग भी करते हुए पाये जाते हैं । मनुष्य तो सामाजिक प्राणी ही है; और समाज तबतक बन ही नहीं सकता जबतक व्यक्तियों में हिंसात्मक वृत्ति का परित्याग न हो । यही नहीं, समाज बनने के लिये यह भी आवश्यक है कि व्यक्तियों में परस्पर रक्षा और सहायता करने की भावना भी हो । यही कारण है कि मनुष्य-समाज में जितने धर्म स्थापित हुए हैं, उनमें, कुछ मर्यादाओं के भीतर, अहिंसा का उपदेश पाया ही जाता है; भले ही वह कुटुंब, जाति, धर्म या मनुष्य मात्र तक ही सीमित हो । भारतीय सामाजिक जीवन में
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भैंस,
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