Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
View full book text
________________
ध्यान
२७३
नामक धर्मध्यान हैं। इन चार प्रकार के धर्मध्यानों से ध्याता की दृष्टि शुद्ध होती है, श्रद्धान दृढ़, बुद्धि निर्मल, तथा चारित्र-पालन विशुद्ध व स्थिर होता है। इसलिये धर्म-ध्यान का आत्म-कल्याण के लिये बड़ा माहात्म्य है।
शुक्ल ध्यान
शुक्ल ध्यान के भी चार भेद हैं-पृथक्त्व-वितर्क-वीचार, एकत्व-वितर्कअवीचार, सूक्ष्म-क्रिया-प्रतिपाती और व्युपरत-क्रिया-निवृत्ति । अनेक जीवादि द्रव्यों व उनकी पर्यायों का अपने मन-वचन-काय इन तीनों योगों द्वारा चिन्तन पृथक्त्व कहलाता है । वितर्क का अर्थ है श्रुत या शास्त्र, और वीचार का अर्थ है-विचरण या विपरिवर्तन । अतः द्रव्य से पर्याय व पर्याय से द्रव्य, एक शास्त्रवचन से दूसरे शास्त्रवचन, तथा एक योग से दूसरे योग के आलम्बन से ध्यान की धारा चलना पृथक्त्व-वितर्क-वीचार ध्यान कहलाता है। जब आलम्बनभूत द्रव्य व उसकी पर्याय का व योग का संक्रमण न होकर, एक ही द्रव्य पर्याय का किसी एक ही योग के द्वारा ध्यान किया जाता है, तब एकत्व-वितर्क-प्रवीचार ध्यान होता है । जब ध्यान में न तो वितर्क अर्थात् श्रुत-वचन का आश्रय रहता, और न वीचार अर्थात् योग-संक्रमण होता, किन्तु केवल सूक्ष्म काययोग मात्र का अवलम्बन रहता है, तब सूक्ष्म-क्रिया-प्रतिपाती नामक तीसरा शुक्लध्यान होता है; तथा जब न वितर्क रहे, न वीचार न योग का अवलम्बन; तब व्युपरतक्रियानिवत्ति नामक सर्वोत्कृष्ट शुक्ल ध्यान होता है यह ध्यान केवलज्ञान की चरम अवस्था में ही होता है; और आत्मा द्वारा शरीर का परित्याग होने पर सिद्धों के आत्मज्ञान का रूप धारण कर लेता है। इस प्रकार शुक्लध्यान द्वारा ही योगी क्रमशः आत्मा को उत्तरोत्तर कर्म-मल से रहित बनाकर अन्ततः मोक्ष पद प्राप्त करता है।
२४ गुणस्थान व मोक्ष
ऊपर मोक्ष-प्राप्ति के हेतु सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र का प्ररुपण किया गया है । मिथ्यात्व से लेकर मोक्षप्राप्ति तक जिन आध्यात्मिक दशाओं में से जीव निकलता है, वे गुणस्थान कहलाते हैं। सामान्यतः इन दशाओं में परिवर्तन करनेवाले वे कर्म हैं जिनकी नाना प्रकृतियों का स्वरूप भी पहले बतलाया जा चुका है। इन कर्मों की परिस्थितियों के अनुसार जीव के जो भाव होते हैं, वे चार प्रकार हैं-औदयिक, औपशमिक, क्षायिक व क्षायोपशमिक। कर्मों के उदय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org