Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
View full book text
________________
२६२
जैन कला
स्वतंत्र सूची दी है, और उन्हें शास्त्रान्तरों से प्राप्त ६४ मूल कलाएं कहा है। और यह भी कहा है कि इन्हीं ६४ मूल कलाओं के भेदोपपेद ५१८ होते हैं। उन्होंने उक्त मूलकलाओं का वर्गीकरण भी किया है, जिसके अनुसार शीत आदि २४ कर्माश्रय; आयुप्राप्ति आदि १५ निर्जीव, द्यूताश्रय; उपस्थान विधि आदि ५ सजीव आश्रय, पुरुष भावग्रहण आदि १६ शयनोपचारिक; तथा साश्रुपात, पातशापन आदि चार उत्तर कलाएं कही गयी हैं। इनके अतिरिक्त अनेक पुराणों व काव्य ग्रन्थों में भी कलाओं के नाम मिलते हैं, जो संख्या व नामों में भी भिन्न-भिन्न पाये जाते हैं। जैसे कादम्बरी में ४८ कलाएं गिनाई गई हैं, जिनमें प्रमाण, धर्मशास्त्र, पुस्तक-व्यापार, आयुर्वेद, सुरु गोपभेद आदि विशेष हैं।
वास्तुकला जैन निमितियों का आदर्श
उपयुक्त कलासूची में वास्तुकला का भी नाम तथा स्कन्धावार, नगर और वास्तु इनके मान व निवेश का पृथक्-पृथक् निर्देश भी पाया जाता है। वास्तुनिवेश व मानोन्मान सम्बन्धी अपनी परम्पराओं में जैनकला जैनधर्म की रैलोक्य सम्बन्धी मान्यताओं से प्रभावित हुई पाई जाती है। अतएव यहां उसका सामान्यरूप से स्वरूप समझ लेना आवश्यक है । जैन साहित्य के करणानुयोग प्रकरण में बतलाया जा चुका है कि अनन्त आकाश के मध्य में स्थित लोकाकाश ऊँचाई में चौदह राजू प्रमाण है, और उसका सात राजू प्रमाण ऊपर का भाग ऊर्ध्वलोक कहा जाता है, जिसमें १६ स्वर्ग आदि स्थित हैं। सात राजू प्रमाण नीचे का भाग अधोलोक कहलाता है, और उसमें सात नरक स्थित हैं। इनके मध्य में झल्लरी के आकार का मध्यलोक है, जिसमें गोलाकार व वलयाकार जंबू द्वीप, लवणसमुद्र आदि उत्तरोत्तर दुगुने प्रमाण वाले असंख्य द्वीपसमुद्र स्थित हैं । इनका विस्तार से वर्णन हमें यतिवृषभ कृत त्रिलोक-प्रज्ञप्ति में मिलता है। इनमें वास्तु-मान व विन्यास सम्बन्धी जो प्रकरण उपयोगी हैं उनका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है।
तिलोय पण्णत्ति के तृतीय अधिकार की गाथा २२ से ६२ तक असुरकुमार अदि भवनवासी देवों के भवनों, वेदिकाओं, कूटों, जिन मन्दिरों व प्रासादों का वर्णन है । भवनों का आकार समचतुष्कोण होता है। प्रत्येक भवन की चारों दिशाओं में चार वेदियां होती हैं, जिनके बाह्य भाग में अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्र, इन वृक्षों के उपवन रहते हैं। इन उपवनों में चैत्यवृक्ष स्थित हैं, जिनकी चारों दिशाओं में तोरण, पाठ महामंगल द्रव्य और मानस्तम्म
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org