Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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मंत्र-तन्त्र विद्याओं से सम्बन्ध रखती है, जिनके द्वारा अपना व अपने इष्टजनों का इष्टसाधन व शत्रु का अनिष्ट साधन किया जा सकता है । रहस्यगत और सभास (५०-५१ ) के विषय में ऊपर कहा ही जा चुका है कि वे संभवतः वात्स्यायनोक्त अक्षरमुष्टिका के प्रकार हैं । चार प्रतिचार, व्यूह व प्रतिव्यूह (५२-५५) ये युद्ध सम्बन्धी विद्याएं प्रतीत होती हैं, जिनके द्वारा क्रमशः सेना के आगे बढ़ाने, शत्रुसेना की चाल को विफल करने के लिये सेना का संचार करने, चक्रव्यूह आदि रूप से सेना का विन्यास करने व शत्रु की व्यूह रचना को तोड़ने योग्य सेना विन्यास किया जाता था । स्कंधावार-मान से नगर निवेश ( ५६-६१ ) तक की कलाओं का विषय शिविर आदि को बसाने व उसके योग्य भूमि, गृह आदि का मान प्रमाण निश्चित करना हैं । ईसत्थ (इषु अस्त्र ) अर्थात् वाविद्या (६२) और छरुष्पवाय ( त्सरुप्रवाद) (६३) छुरी, कटार, खड्ग आदि चलाने की विद्याएं हैं । अश्वशिक्षा आदि से यष्टि-युद्ध (६४-६८) तक की कलाएं उनके नाम से ही स्पष्ट हैं । युद्ध निर्युद्ध एवं जुद्धाइंजुद्ध (६८) ये भी नाना प्रकार से युध्द करने की कलाएं हैं । सूत्रक्रीड़ा डोरी को अंगुलियों द्वारा नाना प्रकार से रचकर चमत्कार दिखाना व धागे के द्वारा पुतलियों को नचाने की कला है । नालिका कीड़ा एक प्रकार की द्यूतक्रीड़ा हैं । वृत्तक्रीड़ा, धर्मक्रीड़ा व चर्मक्रीड़ा, ये क्रमशः मंडल बांधकर, वायु फूंककर जिससे श्वास न टूटे व चर्न के आश्रय से कीड़ा (खेलने) के प्रकार है ( ६६ ) पत्रछेद्य व कटक छेद्य ( ७० ) क्रमशः पत्तों व तृणों को नाना प्रकार से काट-छाँटकर सुन्दर आकार की वस्तुएं बनाने की कला हैं । सजीव-निर्जीव (७१) वही कला प्रतीत होती हैं जिसका उल्लेख वात्स्यायन ने यंत्रमात्रिका नाम से किया है, व जिसके सम्बन्ध में टीकाकार यशोधर ने कहा हैं कि वह गमनागमन व संग्राम के लिये सजीव व निर्जीव यंत्रों की रचना की कला हैं जिसका स्वयं विश्वकर्मा ने स्वरूप बतलाया है । शकुनिरुत ( ७२ ) पक्षियों की बोली को पहचानने की कला है ।
जैन कला
बहत्तर कलाओं की एक सूची औपपात्तिक सूत्र (१०७) में भी पाई जाती हैं । वह समवायान्तर्गत सूची से मिलती है; केवल कुछ नामों में हेर-फेर पाया जाता हैं । उसमें उपर्युक्त नामावली में से मधुसिक्थ (२५) मेढालक्षण, दंडलक्षण, चन्द्रलक्षण से लगाकर सभास पर्यन्त (४२ - ५१ ) दंडयुद्ध, यष्टियुद्ध, और धर्मक्रीड़ा ये नाम नहीं हैं, तथा पाशक (पाँसा से जुआ खेलना ), गीतिका (गेय छंद रचना), हिरघ्ययुक्ति सुवर्णयुक्ति, चूर्णयुक्ति (चाँदी, सोना व मोतियों आदि रत्नों से मिला-जुलाकर भिन्न-भिन्न आभूषण बनाना ), गरुडव्यूह, शकटव्यूह, लतायुद्ध एवं मुक्ताक्रीड़ा, ये नाम नवीन हैं । औपपात्तिक सूत्र में गिनाई गई कलाएं
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