Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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कला के भेद-प्रभेद
धातुपाक, ६८ बाहुयुद्ध, दंडयुद्ध, मुष्टियुद्ध, यष्टियुद्ध, युद्ध, निर्युद्ध, जुद्वाइंजुद्ध, ६६ सूत्रकीड़ा, नालिकाक्रीड़ा, वृतक्रीड़ा, धर्मक्रीड़ा, चर्मक्रीड़ा, ७० पत्रछेद्य, कटकछेद्य, ७१ सजीव निर्जीव, ७२ शकुनरुत ।
१. लेख का अर्थ है अक्षर - विन्यास | इस कला में दो बातों का विचार किया गया है - लिपि और लेख का विषय । लिपि देशभेदानुसार १८ प्रकार की बतलाई गई है । उनके नाम ये हैं: -१ ब्राह्मी, २ जवरगालिया, ३ दोसाऊरिया, ४ खरोष्ठिका, ५ खरसाविया, ६ पहाराइया, ७ उच्चत्तरिया, ८ अक्खरमुट्ठिया, & भोगवइया, १० बेरगतिया, ११ निन्हइया, ११ अंकलिपि, १२ गणितलिपि, १३ गन्धर्वलिपि १४ भूतलिपि, १५ श्रादर्शलिपि, १६ माहेश्वरीलिपि, १७ दामिलिलिपि और (१८) बोलिदि (पोलिदिआन्ध्र) लिपि । इन लिपि-नामों में से ब्राह्मी और खरोष्ठी, इन दो लिपियों के लेख प्रचुरता से मिले हैं । खरोष्ठि का प्रयोग ई० पू० तीसरी शती के मौर्य सम्राट अशोक के लेखों से लेकर दूसरी-तीसरी शती ई० तक के पंजाब व पश्चिमोत्तर प्रदेश से लेकर चीनी तुर्किस्तान तक मिले हैं। ब्राह्मी लिपि की परम्परा देश में आज तक प्रचलित है, व भारत की प्रायः समस्त प्रचलित लिपियां उसी से विकसित हुई हैं । इसका सबसे प्राचीन लेख संभवत: बारली ( अजमेर) से प्राप्त वह छोटा सा लेख है जिसमें वीर (महावीर ) ८४, सम्भवतः निर्वाण से ८४ वां वर्ष, तथा मध्यमिक स्थान का उल्लेख । अशोक के शिलालेखों में इसका प्रचुरता से प्रयोग पाया जाता है, और तब से आज तक भिन्न-भिन्न काल व भिन्न-भिन्न प्रदेश के लेखों में इसका अनुक्रम से प्रयोग व विकास मिलता है । ब्राह्मी लिपी के विषय में जैन आगमों व पुराणों में बतलाया गया है कि आविष्कार आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ ने किया और उसे अपनी पुत्री ब्राह्मी को सिखाया । इसी से इस लिपि का नाम ब्राह्मी पड़ा । समवायांग सूत्र में ब्राह्मी लिपि के ४६ मातृका अक्षरों (स्वरों व व्यजंनों) का उल्लेख है । पांचवें जैनागम भगवती वियाहपण्णत्त सूत्र के आदि में अरहंतादि पंचपरमेष्ठी नमस्कार के साथ 'नमो वंमीए लिवीए । नमो सुयस्स' इस प्रकार ब्राह्मी लिपी व श्रुत को नमस्कार किया गया है । अन्य उल्लिखित लिपियों के संबंध में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं । सम्भव हैं जवरगालिया से यवनानी या यूनानी लिपि का तात्पर्य हो । अक्षरमुष्ठिका कथन को वात्स्यायन ने अपने कामसूत्र में ६४ कलाओं के भीतर गिनाया हैं, और उनके टीकाकार यशोधर ने अक्षरमुष्टिका के साभासा व निरा भासा इन दो भेदों का उल्लेख कर कहा है कि का साभासा प्रकरण आचार्य रविगुप्त ने 'चन्द्रप्रभाविजय' काव्य में पृथक् कहा है । उनके उदाहरणों से प्रतीत
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