Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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होता है कि अक्षर मात्र से पूरे शब्द का संकेत करना साभासा तथा अंगुली - आदि के संकेतों द्वारा शब्द की अभिव्यक्ति को निराभासा अक्षरमुष्टिका कहते थे । इनका समावेश सम्भवत: प्रस्तुत ७२ कलाओं में ५० और ५१ वीं रहस्यगत व सभास नामक कलाओं में होता हैं । कलिपि से १, २ आदि संख्यावाचक चिन्हों का गणितलिपि से जोड़ (+), बाकी ( - ), गुणा (X), भाग ( : ) आदि चिन्हों का, तथा गन्धर्वलिपि से संगीत शास्त्र के स्वरों के चिन्हों का तात्पर्य प्रतीत होता है । आदर्शलिपि अनुमानतः उल्टे अक्षरों के लिखने से बनती है, जो दर्पण आदर्श) में प्रतिबिम्बित होने पर सीधी पढ़ी जा सकती है । आश्चर्य नहीं जो भूतलिपि से भोट (तिब्बत) देश की, माहेश्वरी से महेश्वर (ओंकारमांधाता - मध्यप्रदेश) की, तथा दामिलिलिपि से द्रविड़ ( दमिलतामिल) देश की विशेष लिपियों से तात्पर्य हो । इसी प्रकार भोगवइया से अभि प्राय नागों की प्राचीन राजधानी भोगवती में प्रचलित किसी लिपि - विशेष से हो तो आश्चर्य नहीं ।
जैन कला
१८ लिपियों की एक अन्य सूची विशेष आवश्यक सूत्र ( गा० ४६४ ) की टीका में इस प्रकार दी है:- -१ हंसलिपि, २ भूतलिपि, ३ यक्षलिपि, ४ राक्षसलिपि, ५ प्रोड ( उड़िया) लिपि, ६ यवनी, ७ तुरुष्की, ८ कोरी, ६ द्राविडी १० सैंधव, ११ मालविनी, १२ नडी १३ नागरी १४ लाटी, १५ पारसी, १६ अनिमित्ती १७ चाणक्यो, १८ मूलदेवी । यह नामावली समवायांग की लिपिसूची से बहुत भिन्न है । इनमें समान तो केवल तीन हैं— भूतलिपि, यवनी और द्राविडी । शेष नामों में अधिकांश स्पष्टतः भिन्न-भिन्न जाति व देशवाची हैं । प्रथम चार हंस, भूत, यक्ष, और राक्षस, उन उन अनार्य जातियों की लिपियां व भाषाएं प्रतीत होती है । उड़िया से लेकर पारसी तक की ११ भाषाएं स्पष्टतः देशवाची हैं । शेष तीन में से चाणक्यी और मूलदेवी की परम्परा बहुत कालतक चलती आई है, और उनका स्वरूप कामसूत्र के टीकाकार यशोधर ने कौटिलीय या दुर्बोध, तथा मूलदेवीय इन नामों से बतलाया है । यशोधर ने एक तीसरी भी गूढ़लेख्य नामक लिपि का व्याख्यान किया है, जिसका स्वरूप स्पष्ट समझ में नहीं आता । सम्भवत: वह कोई अंकलिपि थी । आश्चर्य नहीं जो अनिमित्ती से उसी लिपि का तात्पर्य हो । यशोधर के अनुसार प्रत्येक शब्द के अन्त में क्ष अक्षर जोड़ने तथा हस्व और दीर्घ व अनुस्वार और विसर्ग की अदलाबदली कर देने से कौटलीय लिपि बन जाती है, एवं अ और क, ख और ग, घ और ङ, चवर्ग और टवर्ग, तवर्ग और पवर्ग तथा य और श, इनका परस्पर व्यत्यय कर देने से मलदेवी बन जाती है । मूलदेव प्राचीन जैन कथाओं के बहुत
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