Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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मुनि धर्म
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किये गये हैं, जैसे - आमंत्रणी, आज्ञापनी, याचनी, आपृच्छनी, प्रज्ञापनी, प्रत्याख्यानी, संशयवचनी, इच्छानुलोमनी और अनक्षरगता । इनका सत्य-असत्य से कोई सम्बन्ध नहीं । अतएव इन्हें अनुभय वचनरुप कहा गया है । साधक को इस प्रकार मन और वचन के सत्यासत्य स्वरुप का विचारकर, अपनी मनवचन की प्रवृत्ति को सम्भालना चाहिये; और तदनुसार ही कायिक क्रिया में प्रवृत्त होना चाहिये; यही मुनि का त्रिगुप्ति रुप आचरण हैं ।
६ प्रकार का बाह्य तप
उक्त समस्त व्रतों आदि की साधना कर्मास्रव के निरोध रूप संवर व बंधे हुए कर्मों के क्षय रूप निर्जरा करानेवाली है । कर्म-निर्जरा के लिये विशेषरूप से उपयोगी तप साधना मानी गई हैं, जिसके मुख्य दो भेद हैं— बाह्य और प्रभ्यन्तर । अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति परिसंख्यान रस परित्याग, विविक्त- शय्यासन एवं कायक्लेश, ये बाह्य तप के छह प्रकार हैं । सब प्रकार के आहार का परित्याग अनशन; तथा अल्प आहार मात्र ग्रहण करना श्रवमौदर्य या ऊनोदर तप है । एक ही घर से भिक्षा लूंगा; इस प्रकार दिये हुए आहार मात्र को ग्रहण करूंगा; इत्यादि रूप से आहार सम्बन्धी परिस्थितियों का नियन्त्रण करना वृत्ति परिसंख्यान; तथा घृतादि विशेष पौष्टिक एवं विकार वस्तुओं का त्याग, तथा मिष्टादि रसों का नियमन करना रस - परित्याग है । शून्य गृहादि एकान्त स्थान में वास करना विविक्तशय्यासन है; तथा धूप, शीत, वर्षा आदि बाधाओं को विशेष रूप से सहने का एवं आसन-विशेष से लम्बे समय तक स्थिर रहने आदि का अभ्यास करना कयक्लेश तप है ।
६ प्रकार का आभ्यन्तर तप
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आभ्यन्तर तप के छह भेद हैं- प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान । प्रमादवश उत्पन्न हुए दोषों के परिहार के लिये आलोचन, प्रतिक्रमण आदि चित्तशोधक क्रियाओं में प्रवृत्त होना प्रायश्चित तप है । ज्ञान, दर्शन, चारित्र व उपचार की साधना में विशेष रूप से प्रवृत्त होना विनय तप है | ज्ञान-दर्शन - चारित्र का स्वरूप बताया ही जा चुका है । आचार्यादि गुरुजनों व शास्त्रों व प्रतिभाओं आदि पूज्य पापों का प्रत्यक्ष में व परोक्ष में मन-वचनकाय की क्रिया द्वारा आदर-सत्कार व गुणानुवाद आदि करना उपचार विनय है । आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शिक्षाशील, रोगी, गण, कुल, संघ, साधु तथा लोक-सम्मत अन्य योग्यजनों की पीड़ा - बाधाओं को दूर करने के लिये सेवा में प्रवृत्त
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