Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन दर्शन
से उत्पन्न होनेवाले भाव औदयिक कहलाते हैं; जैसे राग, द्वेष, अज्ञान, असंयम रति आदि भाव । कर्मों की उपशम अर्थात् उदयरहित अवस्था में होनेवाले भाव प्रौपशमिक कहे गये हैं; जैसे सम्यक्त्व की प्राप्ति, सदाचार, व्रत-नियम-पालन आदि । कर्मों के उपशम काल में जीव की उसी प्रकार शुद्ध अवस्था हो जाती है, जैसे जल में फिटकिरी आदि शोधक वस्तुओं के प्रभाव से उसका सब मैल नीचे बैठ जाता है और ऊपर का समस्त जल निर्मल हो जाता है। किन्तु आत्मपरिणामों की यह विशुद्धि चिरस्थायी नहीं होती; क्योंकि जिसप्रकार उपशान्त हुआ मल पानी में थोड़ी भी हलचल उत्पन्न होने से पुनः ऊपर उठकर समस्त जल को मलिन कर देता है, उसी प्रकार उपशान्त हुए कर्म शीघ्र ही पुनः कषायोदय द्वारा उभर उठते हैं, और जीव के परिणामों को पुनः मलिन बना देते हैं । किन्तु यदि एकत्र हुए मल को छानकर जल से पृथक् कर दिया जाय, तो फिर वह जल स्थायी रूप से शुद्ध हो जाता है । उसी प्रकार कर्मों के क्षय से जो शुद्ध आत्म-परिणाम होते हैं, उन्हें जीव के क्षयिक भाव कहा जाता है; जैसे केवलज्ञान-दर्शन आदि । कर्मों के सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदय-क्षय व सत्तागत सर्वघाती स्पर्द्धकों का उपशम, तथा देशघाती स्पर्द्धकों का उदय होने से जीव के जो परिणाम होते हैं, वे क्षायोपशमिकभाव कहलाते हैं। ये परिणाम क्षायिक व औपमिक भावों की अपेक्षा कुछ मलिनता लिये हुए रहते हैं; जिस प्रकार कि गंदले पानी को छान लेने से उसका बहुत कुछ मल तो उससे पृथक् हो जाता है, शेष में से कुछ भाग पात्र की तली में बैठा जाता है, और कुछ उसी में मिला रह जाता है, जिसके कारण उस जल में अल्प मलिनता बनी रहती है। सामान्य मति-श्रुत ज्ञान, अणुव्रतपालन आदि क्षायोपशमिक भावों के उदाहरण हैं। इन चार भावों के अतिरिक्त जीव के जीवत्व, भव्यत्व, द्रव्यत्व प्रादि स्वाभाविक गुण पारिणामिक भाव कहलाते हैं ।
इन जीवगत भावों का सामान्यतः समस्त कर्मों से, किन्तु विशेषतः मोहनीय कर्म की प्रकृतियों से घनिष्ठ सम्बन्ध है; और उसी की नाना अवस्थाओं के अनुसार जीव की वे चौदह आध्यात्मिक भूमिकाएं उत्पन्न होती हैं, जिन्हें गुणस्थान कहा गया है। मोहनीय कर्म की मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से जीव के वे समस्त मिथ्याभाव उत्पन्न होते हैं, जिनमें अधिकांश जीव अनादि काल से विद्यमान है। यह जीव का मिथ्यात्व नामक प्रथम गुणस्थान है । निमित्त पाकर जब जीव को औपशमिक, क्षायिक व क्षायोपशमिक भावरूप सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती हैं, तब वह चौथे सम्यक्त्व नामक गुणस्थान में पहुंच जाता है। इनमें से क्षायिक सम्यक्त्व तो स्थायी होता है; और औपशमिक सम्यक्त्व अनिवार्यतः अल्पकालीन ।
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