Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन दर्शन
स्त्री-पुरुषों से माता, बहन, पुत्री अथवा पिता, भाई व पुत्र सदृश शुद्ध व्यवहार रखें और महाव्रती तो सर्वथा ही काम-क्रीड़ा का परित्याग करें। दूसरे का विवाह कराना, गृहीत या वेश्या गणिका के साथ गमन, अप्राकृतिक रूप से कामक्रीड़ा करना, और काम की तीव्र अभिलाषा होना, ये पांच इस व्रत के अतिचार हैं। श्रृंगारात्मक कथावार्ता सुनना, स्त्री-पुरुष के मनोहर अंगों का निरीक्षण, पहले की काम-क्री । प्रादि का स्मरण, काम-पोषक रस औषधि आदि का सेवन, तथा शरीर-शृगार, इन पांचों प्रवृत्तियों का परित्याग करना इस व्रत को दृढ़ करने वाली पांच भावनाएं हैं । इस प्रकार इस व्रत के द्वारा व्यक्ति की काम-वासना को मर्यादित तथा समाज से तत्सम्बन्धी दोषों का परिहार करने का भरसक प्रयत्न किया गया है।
अपरिग्रहाणुव्रत व उसके अतिचार
पशु, परिजन आदि सजीव, एवं घर-द्वार, धन-धान्य आदि निर्जीव वस्तुओं में समत्व बुद्धि रखना परिग्रह है। इस परिग्रह रूप लोभ का पारावार नहीं, और इसी लोभ के कारण समाज में बड़ी आर्थिक विषमताएं तथा बैर-विरोध व संघर्ष उत्पन्न होते हैं। इसलिये इस वृत्ति के निवारण व नियंत्रण पर विशेष जोर दिया गया है । राज्य-नियमों के द्वारा परिग्रहवृत्ति को सीमित करने के प्रयत्न सर्वथा असफल होते हैं; क्योंकि उनसे जनता की मनोवृत्ति तो शुद्ध होती नहीं, और इसलिये बाह्य नियमन से उनकी मानसिक वृत्ति छल-कपट अनाचार की और बढ़ने लगती है। इसीलिये धर्म में परिग्रहवृत्ति को मनुष्य की आभ्यन्तर चेतना द्वारा नियंत्रित करने का प्रयत्न किया गया है। महाव्रती मुनियों को तो तिलतुषमात्र भी परिग्रह रखने का निषेध है । किन्तु गृहस्थों के कुटुम्ब-परिपालनादि कर्तव्यों का विचार कर उनसे स्वयं अपने लिये परिग्रह की सीमा निर्धारित कर लेने का अनुरोध किया गया है। एक तो उन्हें उस सीमा से बाहर धन-धान्य का संचय करना ही नहीं चाहिये; और यदि अनायास ही उसकी आमद हो जावे, तो उसे औषधि, शास्त्र, अभय और आहार, अर्थात् औषधि-वितरण व औषध-शालाओं की स्थापना, शास्त्रदान या विद्यालयों की स्थापना, जीव-रक्षा सम्बन्धी व्यवस्थाओं में, तथा अन्न-वस्त्रादि दान में उस द्रव्य का उपयोग कर देना चाहिये । नियत किये हुए भूमि, घरद्वार, सोना-चाँदी, धन-धान्य, दास-दासी तथा बर्तन-मांडों के प्रमाण का अतिक्रमण करना इस व्रत के अतिचार हैं । इस परिग्रह-परिमाण व्रत को दृढ़ कराने वाली पांच भावनाएँ हैं-पांचों इन्द्रियों सम्बन्धी मनोज्ञ वस्तुओं के प्रति राग व अमनोज्ञ के प्रति द्वेषभाव का परित्याग, क्योंकि इसके बिना मानसिक परिग्रहत्याग नहीं हो सकता ।
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