Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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श्रावक धर्मं
उसमें आग लगने पर स्वयं सुरक्षित निकल आने में ही अपना कल्याण समझता है । इसे सल्लेखना या समाधिमरण कहा गया है। इसे आत्मघात नहीं समझना चाहिये; क्योंकि आत्मघात तीव्र रागद्वेषवृत्ति का परिणाम है; और वह शस्त्र व विष प्रयोग, भृगुपात आदि घातक क्रियाओं द्वारा किया जाता है, जिनका कि सल्लेखना में सर्वथा अभाव है । इस प्रकार यह योजनानुसार शान्तिपूर्वक मरण, जीवन सम्बन्धी सुयोजना का एक अंग है ।
श्रावक की
ग्यारह प्रतिमाएं
पूर्वोक्त गृहस्थ धर्म के व्रतों पर ध्यान देने से यह स्पष्ट दिखाई देगा कि वह धर्म सब व्यक्तियों के लिये, सब काल में, पूर्णतः पालन करना सम्भव नहीं है । इसीलिये परिस्थितियों, सुविधाओं तथा व्यक्ति की शारीरिक व मानसिक वृत्तियों के अनुसार श्रावकधर्म के ग्यारह दर्जेनिर्यत किये गये हैं जिन्हें श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं कहते हैं । गृहस्थ की प्रथम प्रतिमा उस सम्यग्दृष्टि (दर्शन) की प्राप्ति के साथ आरम्भ हो जाती है, जिसका वर्णन ऊपर किया जा चुका है । यह प्रथम प्रतिमाधारी श्रावक किसी भी व्रत का विधिवत् पालन नहीं करता । सम्भव है वह चाण्डाल कर्म करता हो, तथापि आत्मा और पर की सत्ता का भान हो जाने से उसकी दृष्टि शुद्ध हुई मानी गई है, जिसके प्रभाव से वह पशु व नरक योनि में जाने से बच जाता है । तात्पर्य यह है कि भले ही परिस्थिति वश वह अहिंसादि व्रतों का पालन न कर सके; किन्तु जब दृष्टि सुधर गई, तब वह भव्य सिद्ध हो चुका; और कभी न कभी चारित्र -शुद्धि प्राप्त कर मोक्ष का अधिकारी हुए बिना नहीं रह सकता ।
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श्रावक की दूसरी प्रतिमा उसके अहिंसादि पूर्वोक्त व्रतों के विधिवत् ग्रहण करने से प्रारम्भ होती है; और वह क्रमशः पांच अस्तुव्रतों व सातों शिक्षापदों का निरतिचार पालन करने का अभ्यास करता जाता है। तीसरी प्रतिमा सामयिक है । यद्यपि सामायिक का अभ्यास पूर्वोक्त शिक्षाव्रतों के भीतर दूसरी प्रतिमा में ही प्रारम्भ हो जाती है, तथापि इस तीसरी प्रतिमा में ही उसकी वह साधना ऐसी पूर्णता को प्राप्त होती है जिससे उसे अपने क्रोधादि कषायों पर विजय प्राप्त हो जाती है, और सामान्यतः सांसारिक उत्त ेजनाओं से उसकी शान्ति भंग नहीं होती; तथा वह अपने मन को कुछ काल आत्मध्यान में निराकुलतापूर्वक लगाने में समर्थ हो जाता है ।
चौथी प्रोषधोपवास प्रतिमा में वह उस उपवासविधि का पूर्णतः पालन करने
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