Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन दर्शन
में समर्थ होता है जिसकी अभ्यास वह दूसरी प्रतिमा में प्रारम्भ कर चुका है। और जिसका स्वरूप ऊपर वर्णित किया जा चुका है । पांचवीं सचित्त-त्याग प्रतिमा में श्रावक अपनी स्थावर जीवों सम्बन्धी हिंसावृत्ति को विशेषरूप से नियंत्रित करता है और हरे शाक, फल, कन्द-मूल तथा अप्राशुक अर्थात् बिना उबले जल के आहार का त्याग कर देता है । छठी प्रतिमा में वह रात्रि भोजन करना छोड़ देता है, क्योंकि रात्रि में कीट पतंगादि क्षुद्र जन्तुओं द्वारा माहार के दूषित हो जाने को सम्भावना रहती है । सातवीं प्रतिमा में श्रावक पूर्ण ब्रह्मचारी बन जाता है, और अपनी स्त्री से भी काम-क्रीड़ा करना छोड़ देता है, यहां तक की रागात्मक कथा-कहानी पढ़ना-सुनना भी छोड़ देता है, व तत्संबंधी वार्तालाप भी नहीं करता । आठवीं प्रतिमा आरम्भ-त्याग की है, जिसमें श्रावक की सांसारिक आसक्ति इतनी घट जाती है कि वह घर-गृहस्थी सम्बन्धी कामधंधे व व्यापार में रुचि न रख, उसका भार अपने पुत्रादि पर छोड़ देता है ।,
नौवीं प्रतिमा परिग्रह-त्याग की है । श्रावक ने जो अणुव्रतों में परिग्रह-परि माण का अभ्यास प्रारम्भ किया था, वह इस प्रतिमा में आने तक ऐसे उत्कर्ष को पहुंच जाता है कि गृहस्थ को अपने घर-सम्पत्ति व धन-दौलत से कोई मोह नहीं रहता वह अब इस सबको भी अपने पुत्रादि को सौंप देता है और अपने लिये भोजन-वस्त्र मात्र का परिग्रहण रखता है । दसवीं प्रतिमा में उसकी विरक्ति एक दर्जे आगे बढ़ती है, और वह अपने पुत्रादि को काम धंधों सम्बन्धी अनुमति देना भी छोड़ देता है । ग्यारहवीं प्रतिमा उद्दिष्ट-त्याग की है, जहां पर श्रावक धर्म अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाता है । इस प्रतिमा के दो अवान्तर भेद हैंएक 'क्षुल्लक' और दूसरा 'ऐलक' । प्रथम प्रकार का अद्दिष्टत्यागी एक वस्त्र धारण करता है; कैंची, छुरे से अपने बाल बनवा लेता है, तथा पात्र में भोजन कर लेता है । किन्तु दूसरा उहिष्ट-त्यागी वस्त्र के नाम पर केवल कोपीन मात्र धारण करता हैं, स्वयं केशलौंच करता है, पीछी-कमंडल रखता है, और भोजन केवल अपने हाथ में लेकर ही करता है, थाली आदि पात्र से नहीं। इस उद्दिष्टस्याग प्रतिमा का सार्थक लक्षण यह है कि इसमें श्रावक अपने निमित्त बनाया गया भोजन नहीं करता। वह भिक्षावृत्ति स्वीकार कर लेता है ।
इन प्रतिमाओं में दिखाई देगा कि जिन व्रतों का समावेश बारह-व्रतों के भीतर हो चुका है; और जिनके पालन का विधान दूसरी प्रतिमा में ही किया जा चुका है, उन्हीं की प्रायः अन्य प्रतिमाओं में भी पुनरावृत्ति हुई है। किन्तु उनमें भेद यह है कि जिन-जिन व्रतों का विधान ऊपर की प्रतिमाओं में किया
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