Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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मुनि धर्म
२६५ गया है, उनकी परिपूर्णता वहीं पर होती है । अभ्यास के लिये भले ही निचली प्रतिमाओं में भी उनका ग्रहण किया गया हो । यों व्यवहार में प्रथम प्रतिमा से ही निशि-भोजन त्याग पर जोर दिया जाता है, जिसका प्रतिमानुसार विधान छठवें दर्जे पर आता है । तात्पर्य यह है कि वह गुरुजनों के सम्मुख प्रतिज्ञा लेकर उसी प्रतिमा में किया जाता है, और फिर उस व्रत का उल्लंघन करना बड़ा दूषण समझा जाता है। यह व्यवस्था एक उदाहरण द्वारा समझाई जा सकती है। प्रथम वर्ग में पढ़नेवाले विद्यार्थी की एक पाठ्य-पुस्तक नियत है, जिसका यथोचित ज्ञान हुए बिना वह दूसरी कक्षा में जाने योग्य नहीं माना जाता। किन्तु उस वर्ग में होते हुए भी द्वितीयादि वर्गों की पुस्तकों का पढ़ना उसके लिये वज्यं नहीं, अपितु एक प्रकार से वांछनीय ही है । तथापि वह प्रथम वर्ग में उसके पूर्ण ज्ञान व परीक्षा का विषय नहीं माना जाता। इसीप्रकार व्रतों की साधना यथाशक्ति पहली या दूसरी प्रतिमा से ही प्रारम्भ हो जाती है, किन्तु उनका विधिवत् पूर्ण परिपालन उत्तरोत्तर ऊपर की प्रतिमाओं में होता है । यह व्यवस्था जैन-अनेकान्त दृष्टि के अनुकूल है । मुनिधर्म___उपयुक्त श्रावक की सर्वोत्कृष्ट ग्यारहवीं प्रतिमा के पश्चात् मुनिधर्म का प्रारम्भ होता है, जिसमें आदि परिग्रह का पूर्णरूप से परित्याग पर नग्न-वृत्ति धारण की जाती है, और अहिंसादि पांच व्रत महावतों के रूप में पालन करने की प्रतिज्ञा ली जाती है। मुनि को अपने चलने-फिरने में विशेष सावधानी रखना पड़ती है। अपने आगे पांच-हाथ पृथ्वी देख-देख कर चलना पड़ता है,
और अन्धकार में गमन नहीं किया जाता; इसी का नाम ईर्य समिति है । निन्दा व चापलूसी, हंसी, कटु आदि दूषित भाषा का परित्याग कर मुनि को सदव संयत, नपीतुली, सत्य, प्रिय और कल्याणकारी वाणी का ही प्रयोग करना चाहिये । यह मुनि की भाषा समिति है। मिक्षा द्वारा केवल शुद्ध निरामिष आहार का निर्लोभ भाव से ग्रहण करना मुनि की एषणा समिति है । जो कुछ थोड़ी बहुत वस्तुएं निग्रंथ मुनि अपने पास रख सकता है, वे ज्ञान व चारित्र के परिपालन-निमित्त ही हुआ करती हैंजैसे ज्ञानार्जन के लिये शास्त्र, जीव रक्षानिमित्त पिच्छिका एवं शौच-निमित्त कमंडल । ये क्रमशः ज्ञानोपधि, संयमोपधि
और शौचोपधि कहलाती हैं। इनके रखने व ग्रहण करने में भी जीवरक्षा निमित्त सावधानी रखनी आवाननिक्षेप समिति है । मल-मूत्रादि का त्याग किसी दूर, एकान्त, सूखे व जीव-जन्तु रहित' ऐसे स्थान पर करना जिससे किसी को कोई आपत्ति न हो, यह मुनि की प्रतिस्थापन समिति है।
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