Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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श्रावक धर्म
रंग हि तस्स तणिमित्तो बंधो सुमो वि देसिदो समये ।
जम्हा सो प्रपमत्तो सा उ पमाउ ति णिद्दिट्ठा ॥२॥
अर्थात् गमन सम्बन्धी नियमों का सावधानी से पालन करनेवाले संयमी ने जब अपना पैर उठाकर रखा, तभी उसके नीचे कोई जीव-जन्तु चपेट में आकर मर गया । किन्तु इससे शास्त्रानुसार उस संयमी को लेशमात्र भी कर्मबन्धन नहीं हुआ, क्योंकि संयमी ने प्रमाद नहीं किया; और हिंसा तो प्रमाद से ही होती हैं । भावहिंसा कितनी बुरी मानी गयी है, यह इस गाथा से प्रकट हैं—
मरदु व जियदु व जीवो श्रयदाचारस्स रिच्छिदा हिंसा ।
णत्थि बन्धो हिंसामित्तेण समिदस्स ||
अर्थात् जीव मरे या न मरे, जो अपने आचरण में यत्नशील नहीं हैं, वह भावमात्र से हिंसा का दोषी अवश्य होता है; और इसके विपरीत, यदि कोई संयमी अपने आचरण में सतर्क है, तो द्रव्यहिंसा मात्र से वह कर्मबन्ध का भागी नहीं होता । इससे स्पष्ट है कि अहिंसा के उपदेश में भार यथार्थतः मनुष्य की मानसिक शुद्धि पर हैं ।
पयदस्स
२५७
गृहस्थ और मुनि जो अहिंसा व्रत क्रमशः अणु व महत् रूप में पालन करने का उपदेश दिया गया है वह जैन व्यवहार दृष्टि का परिणाम है । मुनि तो सूक्ष्म से सूक्ष्म एकेन्द्री से लगाकर किसी भी जीव की जानबूझकर कभी हिंसा नहीं करेगा, चाहे उसे जीव रक्षा के लिये स्वयं कितना ही क्लेश क्यों न भोगना पड़े । किन्तु गृहस्थ की सीमाओं का ध्यान रखकर उसकी सुविधा के लिये वनस्पति आदि स्थावर हिंसा के त्याग पर उतना भार नहीं दिया गया । द्वीन्द्रियादि
स जीवों के सम्बन्ध में हिंसा के चार भेद किये गये हैं- प्रारम्भी, उद्योगी, विरोधी और संकल्पी हिंसा । चलने-फिरने से लेकर झाड़ना बुहारना व चूल्हाarat आदि गृहस्थी संबंधी क्रियाएं आरम्भ कहलाती हैं; जिसमें अनिवार्यतः होनेवाली हिंसा आरम्भी है । कृषि, दुकानदारी, व्यापार, वाणिज्य, उद्योगधन्धे आदि में होनेवाली हिंसा उद्योगी हिंसा हैं । अपने स्वजनों व परिजनों के, तथा धर्म, देश व समाज की रक्षा के निमित्त जो हिंसा अपरिहार्य हो वह विरोधी हिंसा है; एवं विनोद मात्र के लिये, बैर का बदला चुकाने के लिये अपना पौरुष दिखाने के लिये, अथवा अन्य किसी कुत्सित स्वार्थभाव से जान-बूझकर जो हिंसा
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