Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन दर्शन
है; तथापि जब कोई चित्र देखकर कहता है-यह नारंगी है, यह हिमालय है, ये रामचन्द्र हैं, तब जैन न्याय की दृष्टि अनुसार उक्त बात स्व-जाति असदभूतउपनय से ठीक है । यद्यपि कोई भी व्यक्ति अपने पुत्र कलत्रादि बन्धुवर्ग से, व घरद्वारादि सम्पत्ति से सर्वथा पृथक है; तथापि जब कोई कहता है कि मैं और ये एक हैं; ये मेरे हैं, और मैं इनका हूं, तो यह बात असद्भूत उपचार नय से यथार्थ मानी जा सकती है।
___इस प्रकार नयों के अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं, जिनमें इस न्याय के प्रतिपादक आचार्यों का यह प्रयत्न स्पष्ट दिखाई देता है कि मनुष्य के जब, जहाँ, जिस प्रकार के अनुभव व विचार उत्पन्न हुए, और उन्होंने उन्हें वचनबद्ध किया, उन सब में कुछ न कुछ सत्यांश अवश्य विद्यमान है। और प्रत्येक ज्ञानी का यह कर्तव्य होना चाहिये कि वह उस बात को सुनकर, उसमें अपने निर्धारित मत से कुछ विरोध दिखाई देने पर, उसके खंडन में प्रवृत्त न हो जाय, किन्तु यह जानने का प्रयत्न करे कि वह बात किस अपेक्षा से कहाँ तक सत्य हो सकती है। तथा उसका अपने निश्चित मत से किस प्रकार सामंजस्य बैठाया जा सकता है। जैन स्याद्वाद, अनेकान्त या नयवाद का दावा तो यह है कि वह अपनी न्यायशैली द्वारा समस्त विरुद्ध दिखाई देने वाले मतों और विचारों में वक्ताओं के दृष्टिकोण का पता लगाकर उनके विरोध का परिहार कर सकता है। तथा विरोधी को अपने स्पष्टीकरण द्वारा उसके मत की सीमाओं का बोध कराकर, उन्हें अपने ज्ञान का अंग बना ले सकता है ।
चार-निक्षेप
जैन न्याय की इस अनेकान्त-प्रणाली से प्रेरित होकर ही जैनाचार्यों ने प्रकृति के तत्वों की खोज और प्रतिपादन में यह सावधानी रखने का प्रयत्न किया है कि उनके दृष्टिकोण के सम्बन्ध में भ्रान्ति उत्पन्न न होने पावे । इसी सावधानी के परिणामस्वरूप हमें चार प्रकार के निक्षेपों और उनके नाना भेद-प्रभेदों का व्याख्यान मिलता है। द्रव्य का स्वरूप नाना प्रकार का है, और उसको समझने-समझाने के लिये हम जिन पदतियों का उपयोग करते हैं, वे निक्षेप कहलाती हैं। व्याख्यान में हम वस्तुओं का उल्लेख विविध नामों व संज्ञाओं के द्वारा करते हैं, जो कहीं अपनी व्युत्पत्ति के द्वारा, व कहीं रूढ़ि के द्वारा उनकी वाच्य वस्तु को प्रगट करते हैं। इस प्रकार पुस्तक, घोड़ा व मनुष्य, ये ध्वनियां स्वयं वे-वे वस्तुएं नहीं हैं, किन्तु उन वस्तुओं के नाम निक्षेप हैं, जिनके द्वारा लोक-व्यवहार चलता है। इसी प्रकार यह स्पष्ट समझ कर चलना चाहिये कि
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