Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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नय
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शब्दों का प्रयोग। इन शब्दों का अपना-अपना पृथक् अर्थ है; तथापि रूढ़िवशात् वे पर्यायवाची बन गये हैं । यही समभिरूढ़ नय है। एवम्भूतनय की अपेक्षा वस्तु की जिस समय जो पर्याय हो, उस समय उसी पर्याय के वाची शब्द का प्रयोग किया जाता है, जैसे किसी मनुष्य को पढ़ाते समय पाठक, पूजा करते समय पुजारी, एवं युद्ध करते समय योद्धा कहना । द्रव्याथिक-पर्यायाथिक नय
इन नयों के स्वरूप पर विचार करने से स्पष्ट हो जायगा कि किस प्रकार जैन सिद्धान्त में इन नयों के द्वारा किसी भी वक्ता के वचन को सुनकर उसके अभिप्राय की सुसंगति यथोचित वस्तुस्थिति के साथ दिखलाने का प्रयत्न किया गया है। उपयुक्त सात नय तो यथार्थतः प्रमुख रूप से दृष्टांत मात्र हैं; किन्तु नयों की संख्या तो अपरिमित है; क्योंकि द्रव्य-व्यवस्था के सम्बन्ध में जितने प्रकार के विचार व वचन हो सकते हैं, उतने ही उनके दृष्टकोण को स्पष्ट करने वाले नय कहे जा सकते हैं । उदाहरणार्थ जैन तत्वज्ञान में छह द्रव्य माने गये हैं; किन्तु यदि कोई कहे कि द्रव्य तो यथार्थतः एक ही है, तब नयवाद के अनुसार इसे सत्तामात्र-ग्राही शुद्धद्रव्याथिक नय की अपेक्षा से सत्य स्वीकार किया जा सकता है । सिद्धि व मुक्ति जीव की परमात्मावस्था को माना गया है; किन्तु यदि कोई कहे कि जीव तो सर्वत्र और सर्वदा सिद्ध-मुक्त है, तो इसे भी जैनी यह समझकर स्वीकार कर लेगा कि यह बात कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय से कही गई है । गुण और गुणी, द्रव्य और पर्याय, इनमें यथार्थतः भावात्मक भेद हैं; तथापि यदि कोई कहे कि ज्ञान ही आत्मा है; मनुष्य अमर है; कंकण ही सुवर्ण है; तो इसे भेदविकल्प-निरपेक्ष शुद्धद्रव्याथिक नय से सच माना जा सकता है । सिद्धान्तानुसार ज्ञान-दर्शन ही आत्मा के गुण हैं; और रागद्वेष आदि उसके कर्मजन्य विभाव हैं; तथापि यदि कोई कहे कि जीव रागी-द्वेषी है, तो यह बात कर्मोपाधि साक्षेप अशुद्ध-द्रव्याथिक नय से मानी जाने योग्य है। चींटी से लेकर मनुष्य तक संसारी जीवों की जातियां हैं; और जीव परमात्मा तब बनता है, जब वह विशुद्ध होकर इन समस्त सांसारिक गतियों से मुक्त हो जाय; तथापि यदि कोई कहे कि चींटी भी परमात्मा है, तो इस बात को भी परममावग्राहक द्रव्याथिक नय से ठीक समझना चाहिये । सभी द्रव्य अपने द्रव्यत्व की अपेक्षा चिरस्थायी हैं; किन्तु जब कोई कहता है कि संसार की समस्त वस्तुएं क्षणभंगुर हैं, तब समझना चाहिये कि यह बात वस्तुओं की सत्ता को गौण करके उत्पाद-व्यय गुणात्मक प्रनित्य शुद्धपर्यायाथिक नय से कही गई है । किसी वस्तु, का दृश्य या मनुष्य का चित्र उस वस्तु आदि से सर्वथा पृथक्
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