Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
View full book text
________________
ज्ञान के साधन
२४७
श्रुतज्ञान का अनुभव सभी मनुष्यों को होता है । अवधि और मन:पर्यय ज्ञानके भी कहीं कुछ उदाहरण देखने सुनने में आते हैं; किन्तु वे हैं ऋद्धि-विशेष के परिणाम । केवल ज्ञानयोगि गम्य है; और जैन मान्यतानुसार इस काल व क्षेत्र में किसी को उसका उत्पन्न होना असम्भव है । मति, श्रुत और अवधिज्ञान मिथ्यात्व अवस्था
भी हो सकते हैं और तब उन ज्ञानों को कुमति, कुश्रुति और कुप्रबधि कहा गया है, क्योंकि उस अवस्था में अर्थ-बोध ठीक होने पर भी वह ज्ञान धार्मिक दृष्टि से स्व-पर हितकारी नहीं होता; उससे हित की अपेक्षा अहित की ही सम्भावना अधिक रहती हैं । इसप्रकार ज्ञान के कुल आठ भेद कहे गये हैं ।
ज्ञान के साधन
न्याय दर्शन में प्रमाण चार प्रकार का माना गया है— प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द । ये भेद उत्तरकालीन जैन न्याय में भी स्वीकार किये गये हैं; किन्तु इनका उपर्युक्त पाँच प्रकार के ज्ञानों से कोई विरोध या वैषम्य उपस्थित नहीं होता। यहां प्रत्यक्ष से तात्पर्य इन्द्रिय- प्रत्यक्ष से है; जिसे उपर्युक्त प्रमाणभेदों में परोक्ष कहा गया है; तथापि उसे जैन नैयायिकों ने सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष . की संज्ञा दी है । इसप्रकार वह मतिज्ञान का भेद सिद्ध हो जाता है । शेष जो अनुमान, उपमान और शब्द प्रमाण हैं, उनका समावेश श्रुतज्ञान में होता है ।
प्रमाण व नय
पदार्थों के ज्ञान की उत्पत्ति दो प्रकार से होती है - प्रमाणों से और नयों से ( प्रमाणनयेरधिगमः । त० सू० १, ६) अभी जो पांच प्रकार के ज्ञानों का वर्णन किया गया वह सब प्रमाण की अपेक्षा से । इन प्रमाणभूत ज्ञानों के द्वारा द्रव्यों का उनके समग्ररूप में बोध होता है । किन्तु प्रत्येक पदार्थ अपनी एकामक सत्ता रखता हुआ भी अनन्तगुणात्मक और अनन्तपर्यायात्मक हुआ करता है । इन अनन्त गुण- पर्यायों में से व्यवहार में प्रायः किसी एक विशेष गुणधर्मं के उल्लेख की आवश्यकता होती है । जब हम कहते हैं उस मोटी पुस्तक को ले आओ, तो इससे हमारा काम चल जाता है, और हमारी अभीष्ट पुस्तक हमारे सम्मुख आ जाती है । किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि उस पुस्तक में मोटाई के अतिरिक्त अन्य कोई गुण-धर्म नहीं है । अतएव ज्ञान की दृष्टि से यह सावधानी रखने की आवश्यकता है कि हमारा वचनालाप, जिसके द्वारा हम दूसरों को ज्ञान प्रदान करते हैं, ऐसा न हो कि जिससे दूसरे के हृदय में वस्तु की अनेक गुणात्मकता के स्थान पर एकान्तिकता की छाप बैठा जाय । इसीलिये
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org