Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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नाम कर्म
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भाग अति लघु हो, उसे न्यग्रोधपरिमण्डल (अर्थात् वटवृक्षाकार) संस्थान कहा जाता है । इसके विपरीत, अर्थात् ऊपर का भाग अत्यन्त लघु और नीचे का अत्यन्त विशाल हो, वह स्वाति (अर्थात् वल्मीक के आकार का ) संस्थान कहलाता है । कुबड़े शरीर को कुब्ज, सर्वांग हृस्व शरीर को वामन, तथा सर्व अंगोपांगों में विषमाकार (टेढ़े मेढ़े) शरीर को हुण्ड संस्थान कहते हैं। इन्हीं छह भिन्न शरीर-आकृतियों का निर्माण कराने वाली छह संस्थान प्रकृतियां मानी गई हैं। उपर्युक्त औदारिकादि पांच शरीर-प्रकृतियों में से तैजस और कार्मण, इन दो प्रकृतियों द्वारा किन्हीं भिन्न शरीरों व अंगोपांगों का निर्माण नहीं होता। इसलिये उन दो को छोड़कर अंगोपांग नामकर्म की शेष तीन ही प्रकृतियाँ कही गई हैं । वृषभ का अर्थ अस्थि, और नाराच का अर्थ कील होता हैं । अतएव जिस शरीर की अस्थियां व उन्हें जोड़ने वाली कीलें वज्र के समान दृढ़ होती हैं, वह शरीर वन-वषम-नाराच संहनन कहलाता है । जिस शरीर की केवल नाराच अर्थात् कीलें वज्रवत् होती है, उसे वज्र-नाराच संहनन कहा जाता हैं । नाराच संहनन में कीलें तो होती हैं, किंतु वज्र समान दृढ़ नहीं। अर्द्धनाराच संहनन वाले शरीर में कील पूरी नहीं, किन्तु आधी रहती है। जिस शरीर में अस्थियों के जोड़ों के स्थानों में दोनों ओर अल्प कीलें लगी हो, वह कोलक संहनन है; और जहां अस्थियों का बंध कीलों से नहीं, किंतु स्नायु, मांस आदि से लपेटकर संघटित हो, वह असंप्राप्तास्त्रपाटिका संहनन कहा गया है। इन्हीं छह प्रकार के शरीर-संहननों के निर्माण के लिये उक्त छह प्रकृतियाँ ग्रहण की गई हैं । मृत्युकाल में जीव के पूर्व शरीराकार का विनाश हुए बिना उसकी नवीन गति की ओर ले जाने वाली शक्ति को देने वाली प्रकृति का नाम आनुपूर्वी है, जिसके गतियों के अनुसार चार भेद हैं। शरीर के अंग-प्रत्यंगों की ऐसी रचना जो स्वयं उसी देहधारी जीव को क्लेशदायक हो, उसे उपघात ; और जिससे दूसरों को क्लेश पहुँचाया जा सके, उसे परघात कहते हैं। इन प्रवृत्तियों को उत्पन्न करने वाली प्रकृतियों के नाम भी क्रमशः उपधात और परघात हैं । बड़े सींग, लम्बे स्तन, विशाल तोंद एवं वात, पित्त, कफ आदि दूषण उपघात कर्मोदय के; तथा सर्प की डाढ़ व बिच्छू के डंक का विष, सिंह व्याघ्रादि के नख और दंत आदि परघात कर्मोदय के उदाहरण हैं । आतप का अर्थ है ऊष्णता सहित, तथा उद्योत का अर्थ है ऊष्णता रहित प्रकाश, जैसा कि सूर्य और चन्द्र में पाया जाता हैं । जीव-शरीरों में इन धर्मों को प्रकट करने वाली प्रकृतियों को आतप व उपघात कहा है, जैसा कि क्रमशः सूर्यमण्डलवर्ती पृथ्वीकायिक शरीर व खद्योत । स्थानान्तरण का नाम गति है जो विहायस् अर्थात् आकाश-अवकाश में होती है । किन्हीं जीवों की गति प्रशस्त अर्थात् सुन्दर व
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