Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन दर्शन
काम न होकर मोक्ष है, जिसका साधन धर्म स्वीकार किया गया है। धर्म की इसी श्रेष्ठता के उपलक्ष्य में उसे चार पुरुषार्थों में प्रथम स्थान दिया गया है, और मोक्ष की चरम पुरुषार्थता को सूचित करने के लिए उसे अन्त में रखा गया है। अर्थ और काम ये दोनों साधन, साध्य-जीवन के मध्य की अवस्थाएं हैं। इसीलिये इनका स्थान पुरुषार्थों के मध्य में पाया जाता है। मोक्ष सच्चा सुख
इस प्रकार जैनधर्मानुसार जीवन का अन्तिम ध्येय काम अर्थात् सांसारिक सुख को न मानकर मोक्ष को माना गया है। स्वभावतः प्रश्न होता है कि प्रत्यक्ष सुखदायी पदार्थों व प्रवृत्तियों को महत्व न देकर मोक्ष रूप परोक्ष सुख पर इतना भार दिये जाने का कारण क्या है ? इसका उत्तर यह है कि तत्वज्ञानियों को सांसारिक सुख सच्चा सुख नहीं, किन्तु सुखाभास मात्र प्रतीत हुआ है । वह चिरस्थायी न होकर अल्पकालीन होता हैं और बहुधा एक सुख की तृप्ति उत्तरोत्तर अनेक नई लालसाओं को जन्म देनेवाली पाई जाती है। और जब हम इन सुखों के साधनों अर्थात् सांसारिक सुख-सामग्री के प्रमाण पर विचार करते हैं, तो वह असंख्य प्राणियों की लालसामों को तृप्त करने के लिए पर्याप्त तो होगी, एक जीवकी अभिलाषा को तृप्त करने के योग्य भी नहीं। इसलिये एक आचार्य ने कहा है कि
आशागतः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् । कस्य किं कियदायाति वृथा वो विषयेषता ॥
अर्थात प्रत्येक प्राणी का अभिलाषा रूपी गर्त इतना बड़ा है कि उनमें विश्वभर की सम्पदा एक अणु के समान न कुछ के बराबर है। तब फिर सबकी आशाओं की पूर्ति कैसे, किसे, कितना देकर की जा सकती है। अतएव सांसारिक विषयों की वासना सर्वथा व्यथं है। वह बाह्य वस्तुओं के अधीन होने के कारण भी उसकी प्राप्ति अनिश्चित है; और उसके लिये प्रयत्न भी प्राकुलता और विपत्ति से परिपूर्ण पाया जाता है। उस ओर प्रवृत्ति के द्वारा किसी की - कभी प्यास नहीं बुझ सकती, और न उसे स्थायी सुख-शान्ति मिल सकती । इसीलिये सच्चे स्थायी सुख के लिए मनुष्य को अर्थसंचय रूप प्रवृत्ति-परायणता से मुड़कर धर्मसाधन रूप विरक्ति-परायणता का अभ्यास करना चाहिये, जिसके द्वारा सांसारिक तृष्णा से मुक्ति रूप मात्माधीन मोक्ष सुख की प्राप्ति हो । आचार्यों ने दुःख और सुख की परिभाषा भी यही की है कि
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