Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
View full book text
________________
२४२
जैन दर्शन
जाती है । कभी तीव-दुःख-वेदन के कारण, और कहीं धर्मोपदेश सुनकर अथवा धर्मोत्सव के दर्शन से सम्यक्त्व जागृत हो जाता है । सम्यक्त्व प्राप्त हो जाने पर उसमें दृढ़ता तब आती है जब वह कुछ दोषों से मुक्त और गुणों से संयुक्त हो जाय । धार्मिक श्रद्धान के संबंध में शंकाओं का बना रहना या उसकी साधना से अपनी सांसारिक आकांक्षाओं की पूर्ति करने की भावना रखना, धर्मोपदेश या धार्मिक प्रवृत्तियों के संबंध में सन्देह या घृणा का भाव रखना, एवं कुत्सित देव, शास्त्र व गुरुओं में आस्था रखना, ये सम्यक्त्व को मलिन करने वाले दोष हैं। इन चारों को दूर कर धर्म की निंदा से रक्षा करना, धर्मीजनों को सत्प्रवृत्ति में दृढ़ करना, उनसे सद्भावपूर्ण व्यवहार करना, और धर्म का माहात्म्य प्रगट करने का प्रयत्न करना, इन चार गुणों के जागृत होने से अष्टांग सम्यक्त्व की पूर्णता होती है ।
सम्यग्दृष्टि पुरुष
प्रश्न हो सकता है कि मिथ्यात्वी और सम्यक्त्वी मनुष्य के चारित्र में दृश्यमान भेद क्या है ? मिथ्यात्व के पाँच लक्षण बतलाये गये हैं-विपरीत, एकांत, संशय, विनय प्रज्ञान । मिथ्यात्वी मनुष्य की विपरीतता यह है कि वह असत् को सत्, बुराई को अच्छाई व पाप को पुण्य मानकर चलता है। उसमें हठग्राहिता पाई जाती है, अर्थात् उसका दृष्टिकोण ऐसा संकुचित होता है कि वह अपनी धारणा बदलने व दूसरों के विचारों से उसका मेल बैठाने में सर्वथा असमर्थ होता है । उसमें उदार दृष्टि का अभाव रहता है, यही उसकी एकान्तता है। संशयशील वृत्ति भी मिथ्यात्व का लक्षण है। अच्छी से अच्छी बात में मिथ्यात्वी को पूर्ण विश्वास नहीं होता; एवं प्रबलतम तर्क और प्रमाण उसके संशय को दूर नहीं कर पाते । विनय का अर्थ है नियम-परिपालन किन्तु यदि बिना विवेक के किसी भी प्रकार के अच्छे-बुरे नियम का पालन करना ही कोई श्रेष्ठ धर्म समझ बैठे तो वह विनय मिथ्यात्व का दोषी है । जब तक किसी क्रिया रूप साधन का सम्बन्ध उसके आत्मशुद्धि आदि साध्य के साथ स्पष्टता से दृष्टि में न रखा जाय, तब तक विनयात्मक क्रिया फलहीन व कभी-कभी , अनर्थकारी भी होती है । तत्व और अतत्व के सम्बन्ध में जानकारी या सूझ-बूझ के अभाव का नाम अज्ञान है । इन पांच दोषों के कारण मनुष्य के मानसिक व्यापार, वचनालाप तथा आचार-विचार में सच्चाई यथार्थता व स्व-पर की भलाई नहीं होती। इस कारण वह मिथ्यात्वी कहा गया है। इसके विपरीत उपर्युक्त आत्म-श्रद्धान रूप सम्यक्त्व का उदय होने से मनुष्य के चारित्र में जो सद्भाव उत्पन्न होता है उसके मुख्य चार लक्षण हैं-प्रशम, संवेग, अनुकंपा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org