Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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सम्यग्ज्ञान
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और प्रास्तिक्य । सम्यक्त्व की चित्तवृत्ति रागद्वेषात्मक भावों से विशेष विचलित नहीं होती; और उसकी प्रवृत्ति में शांत भाव दिखाई देता है। शारीरिक व मानसिक आकुलताओं को उत्पन्न करनेवाली सांसारिक वृत्तियों को सम्यक्त्वी अहितकर समझकर उनसे विरक्त व बन्ध-मुक्त होने का इच्छुक हो जाता है; यही सम्यक्त्व का संवेग गुण है। वह जीवमात्र में आत्मतत्व की सत्ता में विश्वास करता हुआ उनके दुःख से दुःखी, और सुख से सुखी होता हुआ, उनके दुःखों का निवारण करने की ओर प्रयत्नशील होता है; यह सम्यक्त्व का अनुकम्पा गुण हैं । सम्यक्त्व का अन्तिम लक्षण है आस्तिक्य । वह इस लोक के परे भी आत्मा के शाश्वतपने में विश्वास करता है व परमात्मत्व की ओर बढ़ने में भरोसा रखता हुआ, सच्चे देवशास्त्र व सच्चे गुरु के प्रति श्रद्धा करता है । इस प्रकार मिथ्यात्व को छोड़ सम्यक्त्व के ग्रहण का अर्थ है अधार्मिकता से धार्मिकता में आना; अथवा असभ्यता के क्षेत्र से निकलकर सभ्यता व सामाजिकता के क्षेत्र में प्रवेश करना । सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से जीवन के परिष्कार व उसमें क्रान्ति का दिग्दर्शन मनुस्मृति (६,७४) में भी उत्तमता से किया गया है
सम्यग्दर्शनसम्पन्नः कर्मभिर्न निबध्यते । दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते ॥
सम्यग्ज्ञान
उपयुक्त प्रकार से सम्यक्त्व के द्वारा शुद्ध दृष्टि की साधना हो जाने पर मोक्ष मार्ग पर बढ़ने के लिये दूसरी साधना ज्ञानोपासना है। सम्यग्दर्शन के द्वारा जिन जीवादि तत्वों में श्रद्धान उत्पन्न हुआ है उनकी विधिवत् यथार्थ जानकारी प्राप्त करना ज्ञान है । दर्शन और ज्ञान में सूक्ष्म भेद की रेखा यह है कि दर्शन का क्षेत्र है अन्तरंग, और ज्ञान का क्षेत्र है बहिरंग । दर्शन आत्मा की सत्ता का मान कराता है, और ज्ञान बाह्य पदार्थों का बोध उत्पन्न करता है। दोनों में परस्पर सम्बन्ध कारण और कार्य का है। जबतक आत्मावधान नहीं होगा, तबतक बाह्य पदार्थों का इन्द्रियों से सन्निकर्ष होने पर भी बोध नहीं हो सकता। अतएव दर्शन की जो सामान्यग्रहण रूप परिभाषा की गई है उसका तात्पर्य आत्म-चैतन्य की उस अवस्था से है, जिसके होने पर मन के द्वारा वस्तुओं का ज्ञान रूप ग्रहण सम्भव है। यह चैतन्य व अवधान पर-पदार्थ-ग्रहण के लिये जिन विशेष इन्द्रियों मानसिक व आध्यात्मिक वृत्तियों को जागृत करता है। उनके अनुसार इसके चार भेद हैं-चक्षु-दर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और
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