Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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चार पुरुषार्थ
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किसी एक काल में प्रारम्भ हुई मानते हैं, उनके सम्मुख यह प्रश्न खड़ा होता है कि जीवन का प्रारम्भ कब और क्यों हुआ? कब का तो कोई उत्तर नहीं दे पाता; किन्तु क्यों का एक यह उत्तर दिया गया है कि ईश्वर की इच्छा से जीव की उत्पत्ति हुई । तात्पर्य यह कि जीव जैसे चेतन द्रव्य की कल्पना करना आवश्यक हो जाता है; और इस महान चेतन द्रव्य की सत्ता को अनादि मानना भी अनिवार्य होता है । जैसा ऊपर बतलाया जा चुका है, जैन धर्म में इस दोहरी कल्पना के स्थान पर सीधे जीव के अनादि काल से संसार में विद्यमान होने की मान्यता को उचित समझा गया है। किन्तु अधिकांश जीवों के लिये इस संसार-भ्रमण का अन्त कर, अपने शुद्ध रूप में आनन्त्य प्राप्त करना सम्भव माना है। इस प्रकार जिन जीवों में संसार से निकल कर मोक्ष प्राप्त करने की शक्ति है, वे जीव भव्य अर्थात् होने योग्य (होनहार) माने गये हैं; और जिनमें यह सामर्थ्य नहीं है, उन्हें अभव्य कहा गया है । चार पुरुषार्थ
जीव के द्वारा अपने संसारानुभवन का अन्त किया जाना वांछनीय है या नहीं; इस सम्बन्ध में भी स्वभावत: बहुत मतभेद पाया जाता है। इस विषय में प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जीवन का अन्तिम ध्येय क्या है ? भारतीय परम्परा में जीवन का ध्येय व पुरुषार्थ चार प्रकार का माना गया है-धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष । इन पर समुचित विचार करने से स्पष्ट दिखाई दे जाता है कि ये चार पुरुषार्थ यथार्थतः दो भागों में विभाजित करने योग्य हैंएक ओर धर्म और अर्थ; व दूसरी ओर काम और मोक्ष । इनमें यथार्थतः पुरुषार्थ अन्तिम दो ही हैं-काम और मोक्ष। काम का अर्थ है-सांसारिक सुखः मोक्ष का अर्थ है-सांसारिक सुख, दुख व बंधनों से मुक्ति । इन दो परस्पर विरोधी पुरुषार्थों के साधन हैं-अर्थ और धर्म । अर्थ से धन-दौलत आदि सांसारिक परिग्रह का तात्पर्य है। जिसके द्वारा भौतिक सुख सिद्ध होते हैं; और
और धर्म से तात्पर्य है उन शारीरिक और आध्यात्मिक साधनाओं का जिनके द्वारा मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है। भारतीय दर्शनों में केवल एक चार्वाक मत ही ऐसा माना गया है, जिसने अर्थ द्वारा काम पुरुषार्थ की सिद्धि को ही जीवन का अन्तिम ध्येय माना है; क्योंकि उस मत के अनुसार शरीर से भिन्न जीव जैसा कोई पृथक तत्व ही नहीं है जो शरीर के भस्म होने पर अपना अस्तित्व स्थिर रख सकता हो। इसलिये इस मत को नास्तिक कहा गया है । शेष वेदान्तादि वैदिक व जैन, बौद्ध जैसे अवैदिक दर्शनों ने किसी न किसी रूप में जीव को शरीर से भिन्न एक शाश्वत तत्व स्वीकार किया है। और इसीलिये ये मत आस्तिक कहे गये हैं। तथा इन मतों के अनुसार जीव का अन्तिम पुरुषार्थ
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