Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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कर्म सिद्धान्त की विशेषता
पुंज बंध को प्राप्त होता है, उसी प्रकार पूर्व संचित कर्म द्रव्य अपनी-अपनी स्थिति पूरी कर उदय में आता रहता है, और अपनी अपनी प्रकृति अनुसार जीव को नानाप्रकार के अनुकूल-प्रतिकूल अनुभव कराता रहता है । इसप्रकार इस कर्म- सिद्धान्तानुसार जीव की नानादशाओं का मूल कारण उसका अपने द्वारा उत्पादित पूर्व कर्म-बंध है । तात्कालिक भिन्न-भिन्न द्रव्यात्मक व भावात्मक परिस्थितियां कर्मों को फलदायिनी शक्ति में कुछ उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण आदि विशेषताएं अवश्य उत्पन्न किया करती हैं; किन्तु सामान्य रूप से कर्मफलभोग की धारा अविच्छिन्न रूप से चला करती है; और यह गीतानुसार भगवान् कृष्ण के शब्दों में पुकार कर कहती रहती है कि
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव मनो बन्धुः आत्मैव रिपुरात्मनः ॥ ( भ०गी० ६, ५)
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कर्मसिद्धान्त की विशेषता
यह है संक्षेप में जैन दर्शन का कर्म सिद्धान्त । 'जैसी करनी, तैसी भरनी' 'जो जस करहि तो तस फल चाखा' (As you sow, so you reap ) एक अति प्राचीन कहावत है । प्रायः सभ्यता के विकास के आदिकाल में ही मानव ने प्रकृति के कार्य-कारण संबंध को जान लिया था; क्योंकि वह देखता था कि प्रायः प्रत्येक कार्य किसी कारण के आधार से ही उत्पन्न होता है; और वह कारण उसी कार्य को उत्पन्न करता है। जहां उसे किसी घटना के लिये कोई स्पष्ट कारण दिखाई नहीं दिया, वहां उसने किसी अदृष्ट कारण की कल्पना की; और घटना जितनी अद्भुत व असाधारण सी दिखाई दी, उतना ही अद्भुत व असाधारण उसका कारण कल्पित करना पड़ा। इसी छुपे हुए रहस्यमय कारण ने. कहीं भूत-प्रेत का रूप धारण किया; कहीं ईश्वर या ईश्वरेच्छा का, कहीं प्रकृति
, और कहीं, यदि वह घटना मनुष्य से सम्बद्ध हुई तो, उसके भाग्य अथवा पूर्वकृत अदृष्ट कर्मों का । जैन दर्शन में इस अन्तिम कारण को आधारभूत मानकर अपने कर्म सिद्धान्त में उसका विस्तार से वर्णन किया गया है । अन्य अधिकांश धर्मों में ईश्वर को यह कर्तृत्व सौंपा गया है; जिसके कारण उनमें कर्म - सिद्धान्त जैसी मान्यता या तो उत्पन्न ही नहीं हुई, या उत्पन्न होकर भी विशेष विकसित नहीं हो पाई । वेदान्त दर्शन में ईश्वर को मानकर भी उसके कर्तृत्व के संबंध में कुछ दोष उत्पन्न होते हुए दिखाई दिये । बादरायण के सूत्रों में और उनके शंकराचार्य कृत भाष्य ( २,१, ३४) में स्पष्ट कहा गया है कि यदि ईश्वर को मनुष्य के सुख-दुःखों का कर्ता माना जाय तो वह पक्षपात
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