Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन दर्शन
सकती है । जिस प्रकार लता, काष्ठ, अस्थि और पाषाण में कोमलता से कठोरता की ओर उत्तरोत्तर वृद्धि पाई जाती है, उसी प्रकार घातिया कर्मों का अनुभाग मन्दता से तीव्रता की ओर बढ़ता जाता है । लता भाग से लेकर काष्ठ के कुछ अंश तक घातिया कर्मों की शक्ति देशघाती कहलाती है, क्योंकि इस अवस्था में वह जीव के गुणों का आंशिक रूप से घात या आवरण करती है । और काष्ठ से आगे पाषाण तक की शक्ति सर्वघाति होती है— अर्थात् उस अनुभाग के उदय में आने पर आत्मा के गुण पूर्णता से ढंक जाते हैं । अघातिया कर्मों में से प्रशस्त प्रकृतियों का अनुभाग, गुड़ खांड, मिश्री और अमृत के समान; तथा अप्रशस्त प्रकृतियों का नीम, कांजी, विष और हलाहल के समान कहा गया है, जिसका बंध उपर्युक्त विशुद्धि व संक्लेश की व्यवस्थानुसार उत्तरोशर तीव्र व मंद होता है ।
प्रदेशबन्ध -
पहले कहा जा चुका है कि मन-वचन-काय की क्रिया के द्वारा जीव आत्मप्रदेशों के संपर्क में कर्म रूप पुद्गल परमाणुओं को ले आता है, और उनमें विविध प्रकार की कर्मशक्तियां उत्पन्न करता है । इसप्रकार पुद्गल परमाणुओं का जीव - प्रदेशों के साथ संबंध होना ही प्रदेश बन्ध है । जिन पुद्गल परमाणुओं को जीव ग्रहण करता है, वे अत्यन्त सूक्ष्म माने गये हैं; और प्रतिसमय बंधने वाले परमाणुओं की संख्या अनन्त मानी गयी है। जितना कर्मद्रव्य बंध को प्राप्त होती है उसका बटवारा जीव के परिणामानुसार आठ मूल प्रकृतियों में हो जाता है । इनमें आयु कर्म का भाग सब से अल्प, उससे अधिक नाम और गोत्र का परस्पर समान; उससे अधिक ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय, इन तीन घातिया कर्मो का परस्पर में समान; उससे अधिक मोहनीय का, और उससे अधिक वेदनीयका भाग होता है । इस अनुपात का काररण इस प्रकार प्रतीत होता है - आयुकमं जीवन में केवल एक बार बंधता है, और सामान्यतः उसमें घटा-बढ़ी न होकर जीवन भर क्रमशः क्षरण होता रहता है, इसलिये उसका द्रव्यपुंज सब से अल्प माना गया है। नाम और गोत्र कर्मों की घटा
जीवन में आयुकर्म की अपेक्षा कुछ अधिक होती है; किन्तु ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय की अपेक्षा उस द्रव्य का हानि लाभ कम ही होता है । मोहनीयकर्म संबंधी कषायों का उदय, उत्कर्ष और अपकर्ष उक्त कर्मों की अपेक्षा अधिक होता है; और उससे भी अधिक सुख-दुख: अनुभवन रूप वेदनीय कर्म का कार्य पाया जाता है । इसी कारण इन कर्मों के भाग का द्रव्य उक्त क्रम से errfan कहा गया है । जिस प्रकार प्रतिसमय अनन्त परमाणुओं का पुद्गल
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