Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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बंध के कारण
उपस्थित होती है, तब दर्शनावरण; व ज्ञान के संबंध में उत्पन्न होने पर ज्ञानावरण कर्म-प्रकृति का बंध कराती है, व भाववैचित्रय के अनुसार इन कर्मों की उत्तर प्रकृतियां बंधती हैं । उसी प्रकार परम ज्ञानियों, उत्तम शास्त्र, सच्चे धर्मनिष्ठ व्यक्तियों, धर्माचरणों व सच्चे देव के सम्बन्ध में निंदा और अपमान फैलाना, दर्शन मोहनीय कर्म के कारण हैं; तथा क्रोधादि कसायों से जो भावों की तीव्रता उत्पन्न होती है, उससे चारित्र-मोहनीय कर्म बंधता हैं । दान, लाभ, भोग, उपभोग व शक्ति (वीर्य) उपार्जन जीवन को सुखी बनाने की सामान्य प्रवृत्तियां हैं। इनमें कुटिलभाव से विघ्न उपस्थित करने के कारण अन्तराय कर्म की विविध प्रकृतियों का बंध होता है। ये चारों कर्म जीव के गुणों के विकास में बाधक होते हैं, अर्थात् उनकी सत्ता विद्यमान रहने पर जीव अपने ज्ञान-दर्शनादि गुणों को पूर्ण रूप से विकसित नहीं कर पाता, इसकारण इन कर्मों को घाति एवं पाप-कर्म कहा गया है। शेष जो चार वेदनीय, आयु, गोत्र व नाम कर्म हैं, उनका अस्तित्व रहते हुए भी जीव के केवल ज्ञान की प्राप्ति रूप पूर्ण आध्यात्मिक विकास में बाधा नहीं पड़ती। इसलिये इन कर्मों को अघाति कर्म माना गया है । स्वयं को या दूसरों को दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध आदि रूप पीड़ा देने से असातावेदनीय कर्म का बंध होता है तथा जीवों के प्रति दयाभाव, व्रती व संयमी पुरुषों के प्रति अनुकम्पा व दान, तथा संसार से छूटने की इच्छा से स्वयं व्रत-संयम के अभ्यास से साता-वेदनीय कर्म का बंध होता है । इस प्रकार वेदनीय कर्म दो प्रकार का सिद्ध हुआ-एक दुःखदायी, दूसरा सुखदायी और इसलिये एक को पाप व दूसरे को पुण्य कहा गया है।
यहां यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि पुण्य और पाप, ये दोनों ही प्रवृत्तियां कर्मबंध उत्पन्न करती हैं। हाँ, उनमें से प्रथम प्रकार का कर्मबंध जीव के अनुभव में अनुकूल व सुखदायी; और दूसरा प्रतिकूल व दुखःदायी सिद्ध होता है। इसीलिये पुण्य और पाप दोनों को शरीर को बाँधने वाली बेड़ियों की उपमा दी गई है। पाप रूप बेड़ियां लोहे की है; और पुण्य रूप बेड़ियां सुवर्ण की, जो अलंकारों का रूप धारणकर प्रिय लगती हैं। जीव के इन पुण्य और पाप रूप परिणामों को शुभ व अशुभ भी कहा गया है। ये दोनों ही संसार-भ्रमण के कारणीभूत हैं; भले ही पुण्य जीव को स्वर्गादि शुभ गतियों में ले जाकर सुखानुभव कराये; अथवा पाप नरकादि व पशु योनियों में ले जाकर दुःखदायी हो। इन दोनों शुभाशुभ परिणामों से पृथक् जो जीव की शुद्धावस्था मानी गई है, वही कर्मबंध से छुड़ाकर मोक्ष गति को प्राप्त कराने वाली है ।
सांसारिक कार्यों में अति आसक्ति व अति परिग्रह नरकायु बंध का कारण
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