Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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आस्त्रव तत्त्व
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नामक छह मूल द्रश्य हैं, जिनसे विश्व के समस्त सत्तामक पदार्थों का निर्माण हुआ है । इस निर्माण में जो वैचित्र्य दिखलाई देता है वह द्रव्य की अपनी एक विशेषता के कारण सम्भव है। द्रव्य वह है जो अपनी सत्ता रखता है (सद द्रव्य-लक्षणम्) । किन्तु जैन सिद्धान्त में सत् का लक्षण वेदान्त के समान कूटस्थनित्यता नहीं माना गया। यहां सत्का स्वरूप यह बतलाया गया है कि जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य, इन तीनों लक्षणों से युक्त हो (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्) । तदनुसार उक्त सत्तात्मक द्रव्यों में प्रतिक्षण कुछ न कुछ नवीनता आती रहती है, कुछ न कुछ क्षीणता होती रहती है, और इस पर भी एक ऐसी स्थिरता भी बनी रहती है जिसके कारण वह द्रव्य अपने द्रव्य-स्वरूप से च्युत नहीं हो पाता । द्रव्य की यह विशेषता उसके दो प्रकार के धर्मों के कारण सम्भव है। प्रत्येक द्रव्य गुणों और पर्यायों से युक्त है (गुम-पर्ययवद् द्रव्यम्) गुण वस्तु का वह धर्म है, जो उससे कभी पृथक नहीं होता, और उसकी ध्रुवता को सुरक्षित रखता है। किन्तु पर्याय द्रव्य का एक ऐसा धर्म है जो निरन्तर बदलता है, और जिसके कारण उसके स्वरूप में सदैव कुछ नवीनता और कुछ क्षीणता रूप परिवर्तन होता रहता है। उदाहरणार्थ-सुवर्ण धातु के जो विशेष गुरुत्व आदि गुण हैं, वे कभी उससे पृथक नहीं होते। किन्तु उसके मुद्रा, कुंडल ककण आदि आकार व संस्थान रूप पर्याय बदलते रहते हैं। इसप्रकार दृश्यमान जगत् के समस्त पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का परिपूर्ण निरूपण जैन दर्शन में पाया जाता है; और उसमें अन्य दर्शनों में निरूपित द्रव्य के आंशिक स्वरूप का भी समावेश हो जाता है। जैसे, बौद्ध दर्शन में समस्त वस्तुओं को क्षणध्वंसी माना गया हैं, जो जैन दर्शनानुसार द्रव्य में निरन्तर होनेवाले उत्पाद-व्यय रूप धर्मों के कारण है; तथा वेदान्त में जो सत् को कूटस्थ नित्य माना गया है, वह द्रव्य की ध्रौव्य गुणात्मकता के कारण है।
आस्त्रव-तत्व
जैन सिद्धान्त के सात तत्वों में प्रथम दो अर्थात् जीव और अजीव तत्वों का निरूपण ऊपर किया जा चुका है। अब यहां तीसरे और चौथे आस्रव बंष नामक तत्वों की व्याख्या की जाती है। यह विषय जैन कर्म-सिद्धान्त का है, जिसे हम आधुनिक वैज्ञानिक शब्दावली में जैन मनोविज्ञान (साइकोलोजी) कह सकते हैं । सचेतन जीव संसार में किसी न किसी प्रकार का शरीर धारण किये हुए पाया जाता है। इस शरीर के दो प्रकार के अंग-उपांग हैं, एक हाथ पैर आदि; और दूसरे जिह्वा, नासिक नेत्रादि । इन्हें क्रमशः कर्मेन्द्रियां और
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