Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन साहित्य
(३) तीसरे उपांग जीवाजीवाभिगम में २० उद्देश्य थे, किन्तु उपलभ्य संस्करण में नौ प्रतिपत्तियाँ (प्रकरण) हैं, जिनके भीतर २७२ सूत्र हैं इसमें नामानुसार जीव और अजीव के भेद-प्रभेदों का विवरण महावीर और गौतम के बीच प्रश्नोत्तर रूप से उपस्थित किया गया है। तीसरी प्रतिपत्ति में द्वीप सागरों का विस्तार से वर्णन पाया जाता है । यहाँ प्रसंगवश लोकोत्सवों, यानों, अलंकारों व मिष्टान्नों आदि के उल्लेख भी आये हैं, जो प्राचीन लोक-जीवन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।
(४) चौथे उपांग प्रज्ञापना (पण्णवणा) में छत्तीस पद (परिच्छेद)हैं, जिनमें क्रमशः जीव से सबंध रखनेवाले प्रज्ञापना, स्थान, बहु वक्तव्य, स्थिति एवं कषाय, इन्द्रिय, लेश्या, कर्म, उपयोग, वेदना, समुद्घात आदि विषयों का प्ररू. पण है । जैन दर्शन की दृष्टि से यह रचना बड़ी महत्वपूर्ण है । जो स्थान अंगों में भगवती सूत्र को प्राप्त है, वही उपांगों में इस सूत्र को दिया जा सकता है, और उसे भी उसी के अनुसार जैन सिद्धान्त का ज्ञान कोष कहा जा सकता है। इस रचना में इसके कर्ता आर्य श्याम का भी उल्लेख पाया जाता है, जिनका समय सुधर्म स्वामी से २३ वीं पीढ़ी वीर नि० के ३७६ वर्ष पश्चात् अर्थात् ई० पूर्व दूसरी शताब्दी सिद्ध होता है।
(५) पांचवा उपांग सूर्य प्रजाप्ति (सूरियपण्णति) में २० पाहुड हैं, जिनके अन्तर्गत १०८ सूत्रों में सूर्य तथा चन्द्र व नक्षत्रों की गतियों का विस्तार से वर्णन किया गया है । प्राचीन भारतीय ज्योतिष संबंधी मान्यताओं के अध्ययन के लिये यह रचना विशेष महत्वपूर्ण है।
(७) छठा उपांग जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति (जम्बूदीवपण्ण त्ति है। इसके दो विभाग हैं, पूर्वाद्ध और उत्तरार्द्ध । प्रथम भाग के चार वक्खकारों (परिच्छेदों) में जम्बूद्वीप और भरत क्षेत्र तथा उसके पर्वतों, नदियों आदि का एवं उत्सर्पिणी व अक्सर्पिणी काल-विभागों का तथा कुलकरों, तीर्थंकरों और चक्रवर्ती आदि का वर्णन है।
(७) सातवाँ उपांग चन्द्रप्रज्ञप्ति (चंदपण्णत्ति) अपने विषय-विभाजन व प्रतिपादन में सूर्यप्रज्ञप्ति से अभिन्न है । मूलतः ये दोनों अवश्य अपने-अपने विषय में भिन्न रहे होंगे, किन्तु उनका मिश्रण होकर वे प्रायः एक से हो गये हैं।
(८)आठवें उपांग कल्पिका(कप्यिया) में १० अध्ययन हैं जिनमें कुणिक अजातशत्रु के अपने पिता श्रेणिक बिबिसार को बंदीगृह में डालने, श्रेणिक की आत्महत्या तथा कुणिक का वैशाली नरेगा चेटक के साथ युद्ध का वर्णन है, जिनसे मगध के प्राचीन इतिहास पर विशेष प्रकाश पड़ता है।
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