Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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अर्धमागधी जैनागम
बोली जाती थी, अथवा जिसमें मागधी भाषा की आधी प्रवृत्तियाँ पाई जाती थी। यथार्थतः ये दोनों ही व्युत्पत्तियां सार्थक हैं, और इस भाषा के ऐतिहासिक स्वरूप को सूचित करती हैं । मागधी भाषा की मुख्यतः तीन विशेषताएं थीं। (१) उसमें र का उच्चारण ल होता था, (२) तीनों प्रकार के ऊष्म ष, स, श वर्गों के स्थान पर केवल तालव्य 'श' ही पाया जाता था; और (३) अकारान्त कतीकारक एक वचन का रूप 'प्रो' के स्थान पर 'ए' प्रत्यय द्वारा बनता था । इन तीन मुख्य प्रवृत्तियों में से अर्द्ध-मागधी में कर्तीकारक की एकारविभक्ति बहुलता से पायी जाती है । र का ल क्वचित् ही होता है, तथा तीनों सकारों के स्थान पर तालव्य 'श' कार न हो दन्त्य 'स' कार ही होता है। इस प्रकार इस भाषा में मागधी की आधी प्रवृत्तियाँ कही जा सकती हैं इसकी शेष प्रवृत्तियां शौरसैनी प्राकृत से मिलती हैं, जिससे अनुमान किया जा सकता है कि इस भाषा का प्रचार मगध के पश्चिम प्रदेश में रहा होगा। विद्वानों का यह भी मत है कि मूलतः महावीर एवम् बुद्ध दोनों के उपदेशों की भाषा उस समय की अर्द्ध मागधी रही होगी, जिससे वे उपदेश पूर्व एवम् पश्चिम की जनता को समान रूप से सुबोध हो सके होंगे। किन्तु पूर्वोक्त उपलभ्य पागम ग्रन्थों में हमें उस प्राक्तन अद्धमागधी का स्वरूप नहीं मिलता । भाषा-शास्त्रियों का मत है कि उस काल की मध्ययुगीन आर्य भाषा में संयुक्त व्यंजनों का समीकरण अथवा स्वरभक्तिआदि विधियों से भाषा का सरलीकरण तो प्रारम्भ हो गया था, किन्तु उसमें वर्गों का विपरिवर्तन जैसे क-ग, त-द, अथवा इनके लोप की प्रक्रिया प्रारंभ नहीं हुई थी। यह प्रक्रिया मध्ययुगीन आर्य भाषा के दूसरे स्तर में प्रारंभ हुई मानी जाती है। जिसका काल लगभग दूसरी शती ई० सिद्ध होता है । उपलभ्य पागम ग्रन्थ इसी स्तर की प्रवृत्तियों से प्रभावित पाये जाते हैं । स्पष्टतः ये प्रवृत्तियां कालानुसार उनकी मौखिक परम्परा के कारण उनमें समाविष्ट हो गई हैं। सूत्र या सूक्त ?
इन आगमों के सम्बन्ध में एक बात और विचारणीय है। उन्हें प्रायः सूत्र नाम से उल्लिखित किया जाता है, जैसे प्राचारांग सूत्र, उत्तराध्यन सूत्र आदि । किन्तु जिस अर्थ में संस्कृत में सूत्र शब्द का प्रयोग पाया जाता है, उस अर्थ में ये रचनाएं सूत्र रूप सिद्ध नहीं होती । सूत्र का मुख्य लक्षण संक्षिप्त वाक्य में अधिक से अधिक अर्थ व्यक्त करना है, और उनमें पुनरावृत्ति को दोष माना जाता है। किन्तु ये जैन श्र तांग न तो वैसी संक्षिप्त रचनाएं हैं, और न उनमें विषय व वाक्यों की पुनरावृत्ति की कमी है । अतएव उन्हें सूत्र कहना अनुचित सा प्रतीत होता है । अपने प्राकृत नामानुसार ये रचनाएं सुत्त कहीं गई
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