Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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न्याय
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क्यनंदि कृत परीक्षा मुख में हमें अनुमान के प्रतिज्ञा, हेतु दृष्टान्त, उपनय और निगमन, इन पांचों अवयवों के प्रयोग की स्वीकृति दिखाई देती है (३, २७-४६) यहाँ अनुप्लब्धि को एक मात्र प्रतिषेध का ही नहीं, किन्तु विधि-निषेध दोनों का साधक बतलाया है (३, ५७ आदि) । यह ग्रंथ प्रभाचन्द्र कृत प्रमेय-कमल. मार्तण्ड' नामक टीका के द्वारा विशेष प्रख्यात हो गया है । प्रभाचन्द्र कृत 'न्यायकुमुदचन्द्र' नामक टीका का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। प्रभाचन्द्र का काल ई० की ११वीं शती सिद्ध होता है । १२वीं शती में अनन्तवीर्य ने प्रमेय रत्नमाला, १५वीं शती में धर्मभूषण ने न्यायदीपिका, विमलदास ने सप्तभंगीतरंगिणी, शुभचन्द्र ने संशयवदनविदारण, तथा अनेक प्राचार्यों ने पूर्वोक्त ग्रंथों पर टीका, वृत्ति व टिप्पण रूप से अथवा स्वतंत्र प्रकरण लिखकर संस्कृत में जैन न्यायशास्त्र की परम्परा को १७ वीं-१८ वीं शती तक बराबर प्रचलित रखा, और उसका अध्ययन-अध्यापन उत्तरोत्तर सरल और सुबोध बनाने का प्रयत्न किया ।
जिस प्रकार दिग० सम्प्रदाय में पूर्वोक्त प्रकार से न्यायविषयक ग्रंथों की रचना हुई, उसी प्रकार श्वे० सम्प्रदाय में भी सिद्धसेन के पश्चात् संस्कृत में नाना न्यायविषयक ग्रन्थों की रचना की परम्परा १८वीं शती तक पाई जाती है । मुख्य नैयायिक और उनकी रचनाएँ निम्न प्रकार हैं : मल्लवादी ने छठवीं शती में द्वादशार नयचक्र नामक ग्रंथ की रचना की जिस पर सिंहसूरिगणि
की वृत्ति है और उसी वृत्ति पर से इस ग्रंथ का उद्धार किया गया है - इसमें सिद्धसेन के उद्धरण पाये जाते हैं, तथा भर्तृहरि और दिङनाग के मतोंका भी उल्लेख हुमा है । इस नयचक्र का कुछ उद्धरण प्रकलंक के तत्त्वार्थवार्तिक में भी पाया जाता है । आठवीं शती हरिभद्राचार्य ने न केवल जैन न्याय को, किन्तु जैन सिद्धांत को भी अपनी विपुल रचनाओं द्वारा परिपुष्ट बनाया है, एवं कथा साहित्य को भी अलंकृत किया है । उनकी रचनाओं में अनेकांत जयपताका (स्वोपज्ञ वृत्ति सहित), अनेकांत-वाद-प्रवेश तथा सर्वज्ञसिद्धि जैन न्याय की दृष्टि से उल्लेखनीय है।
अनेकांत-जयपताका में ६ अधिकार हैं जिनमें क्रमशः सदसद्-रूप-वस्तु, नित्यानित्यवस्तु, सामान्य-विशेष, अभिलाप्यानभिलाप्य, योगाचार मत, और मुक्ति इन विषयों पर गम्भीर व विस्तृत न्यायशैली से उहापोह की गई है। उक्त विषयों में से योगाचार मत को छोड़कर शेष पांच विषयों पर हरिभद्र ने अनेकांतवाद-प्रवेश नामक ग्रन्थ संस्कृत में लिखा, जो भाषा, शैली तथा विषय की दृष्टि से अनेकांत जयपताका का संक्षिप्त रूप ही प्रतीत होता है । यह ग्रन्थ एक
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