Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन साहित्य
कुंदकुंद के पश्चात् स्वतंत्र रूप से योग विषयक ग्रन्थकर्ता आ० हरिभद्र हैं, जिनकी योग विषयक स्वतंत्र तीन रचनाएँ प्राप्त है-योगशतक (प्राकृत), योगबिन्दु (संस्कृत) और योगदृष्टिसमुच्चय (सं०) इनके अतिरिक्त उनकी विंशति विशिका में एक ( १७ वीं विशिका) तथा षोडशक में १४ वा व १६ वां ये दो, इस प्रकार तीन छोटे छोटे प्रकरण भी हैं । योगशतक में १०१ प्राकृत गाथाओं द्वारा सम्यग्दर्शन आदि रूप निश्चय और व्यवहार योग का स्वरूप, योग के अधिकारी, योगाधिकारी के लक्षण एवं ध्यान रूप योगावस्था का सामान्य रीति से जैन परम्परानुसार ही वर्णन किया गया है । योगविशति की बीस गाथाओं में अतिसंक्षिप्त रूप से योग की विकसित अवस्थाओं का निरूपण किया गया है, जिसमें कर्ता ने कुछ नये पारिभाषिक शब्दों का उपयोग किया हैं । यहाँ उन्होंने योग के पांच भेदों या अनुष्ठानों को स्थान, ऊर्ण, अर्थ, आलम्बन और अन्तर्लम्बन संज्ञाएं देकर (गा० २), पहले दो को कर्मयोग रूप और शेष तीन को ज्ञानयोग रूप कहा है (गा० ३) । तत्पश्चात् इन पाँचों योग भेदों के इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता और सिद्धि, ये चार यम नामक प्रभेद किये हैं, और अन्त में इनकी प्रीति, भक्ति, वचन और असंग अनुष्ठान नामक चार चार अवस्थाएं स्थापित करके आलम्बन योग का स्वरूप समझाया है।
ध्यान व योग-अपभ्रंश :
__ यहाँ अपभ्रंश भाषा की कुछ रचनाओं का उल्लेख भी उचित प्रतीत होता है, क्योंकि वे अध्यात्म विषयक हैं। योगीन्द्र कत परमात्म-प्रकाश ३४५ दोहों में तथा योगसार १०७ दोहों में समाप्त हुए हैं। इन दोनों रचनाओं में कुदकुद कृत मोक्षपाहुड के अनुसार आत्मा के बहिरात्म अन्तरात्म और परमात्म इन तीन स्वरूपों का विस्तार से वर्णन किया गया है, और जीवों को संसार के विषयों से चित्त को हटाकर, उसे आत्मोन्मुख बनाने का नानाप्रकार से उपदेश दिया गया है। यह सब उपदेश योगीन्द्र ने अपने एक शिष्य भट्ट प्रभाकर के के प्रश्नों के उत्तर में दिया है । इन रचनाओं का काल सम्पादक ने ई० की छठी शती अनुमान किया है (प्रकाशित बम्बई १९३७) । परमात्म प्रकाश के कुछ दोहे हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण में उद्धृत पाये जाते हैं, जिससे इसकी रचना हेमचन्द्र से पूर्व काल की सुनिश्चित है।
रामसिंह मुनि कृत 'पाहुड दोहा' में २२२ दोहे हैं, और इनमें योगी रचयिता ने बाह्य क्रियाकांड की निष्फलता तथा आत्म-संयम और आत्मदर्शन में ही सच्चे कल्याण का उपदेश दिया है । झूठे जोगियों को ग्रन्थ में खूब फटकारा
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