Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
View full book text
________________
१४५
प्रथमानुयोग - प्राकृत
उद्योतन सूरि कृत कुवलयमाला की रचना ग्रन्थ के उल्लेखानुसार ही शक सं० ७०० ( ई० सन् ७७८) में जाबालिपुर (जालोर - राजस्थान) में हुई थी । लेखक ने अपना विरुद् दाक्षिण्यचिह्न भी प्रगट किया है । चरित्र नायिका कुवलयमाला के वैचित्र्यपूर्ण जीवनचरित्र में गुम्फित नामा प्रकार के उपाख्यान, घटनाएं, सामाजिक व वैयक्तिक चित्रण, इस कृति की अपनी विशेषताएं है, जिनकी समतौल अन्यत्र पाना कठिन है । प्राकृत भाषा के नाना देशी रूप व शैलियों के प्रचुर उदाहरण इस ग्रन्थ में मिलते हैं । लेखक का ध्येय अपनी कथाओं द्वारा क्रोधादि कषायों व दुर्भावनाओं के दुष्परिणाम चित्रित करना है । घटना - वैचित्र्य व उपाख्यानों की प्रचुरता में यह वसुदेव- हिंडी के समान है । यथास्थान अपनी प्रौढ़ शैली में वह सुबंधु और बाण की संस्कृत रनचाओं से समता रखती है । समरादित्य कथा का भी रचना में बहुत प्रभाव दिखाई देता है । स्वयं कर्ता ने हरिभद्र को अपना सिद्धान्त व न्याय का गुरु माना है, तथा उनकी समरमियंका (समरादित्य) कथा का भी उल्लेख किया है ।
देवेन्द्रगणि कृत रयणचूडरायचरियं में कर्ता ने अपनी गुरु-परम्परा देवसूरि से लेकर उद्योतन सूरि द्वि० तक बतलाई है, और फिर कहा कि वे स्वयं उद्योतन सूरि के शिष्य उपाध्याय अम्बदेव के शिष्य थे जिनका नाम नेमिचन्द्र भी था । उन्होंने यह रचना इंडिल पदनिवेश में प्रारम्भ की थी, और चड्डावलि पूरी में समाप्त की थी । नेमिचन्द्र अपर नाम देवेन्द्र गणि, ने अपनी उत्तराध्ययन टोका वि० सं० ११२६ में तथा महावीर चरियं वि० ११४० में लिखे थे । अतएव प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना इसी समय के लगभग की सिद्ध होती है । कथा में राजा श्रेणिक के प्रश्न के उत्तर में गौतम गणधर ने कंचनपुर के बकुल नामक मालाकार के ऋषभ भगवान को पुष्प चढ़ाने के फलस्वरूप गजपुर में कमलसेन राजा के पुत्र रत्नचूड़ की उत्पत्ति का वृत्तान्न सुनाया । रत्नचूड़ ने एक मदोन्मत्त गज का दमन किया; किन्तु वह एक विधाधर निकला, और राजकुमार का अपहरण कर ले गया। रत्नचूड़ ने नाना प्रदेशों का भ्रमण किया; विचित्र अनुभव प्राप्त किये; अनेक सुन्दरियों से विवाह किया; और ऋद्धि प्राप्त की; जिसका वर्णन बड़ा रोचक है । अन्त में वे राजधानी में लौट आये; और मुनि का उपदेश पाकर धार्मिक जीवन व्यतीत करते हुए मरणोपरान्त स्वर्गगामी हुए । कथा में अनेक उपाख्यानों का समावेश है । यह कथा 'नायाधम्मकहा' में सूचित देवपूजा आदि के धर्मफल के दृष्टान्त रूप रची गई है । ( प्रका० अमदाबाद, १६४२)
कालकाचार्य को कथा सबसे प्राचीन निशीथचूर्णि, आवश्यक चूर्णि वृहत्कल्प भाष्य आदि श्रर्द्धमागधी आगम की टीकानों में पाई जाती है । इस पर स्वतंत्र
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org