Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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संस्कृत व्याकरण
केवल यह आपत्ति प्रकट की है कि प्रस्तुत प्रक्रिया के कर्ता ने अपने गुरु को कविपति बतलाया है, व्याकरणज्ञ नहीं । किन्तु यह कोई बड़ी आपत्ति नहीं ।
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देवनन्दि के पश्चात् दूसरे संस्कृत के महान जैन वैयाकरण शाकटायन हुए जिन्होंने शब्दानुशासन की रचना राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष के समय में की, और जिसका रचना - काल शक सं० ७३६ व. ७८९ के बीच सिद्ध होता है । एक टीकाकार तथा पार्श्वनाथ चरित के कर्ता वादिचन्द्र ने इस व्याकरण के कर्ता का पाल्यकीर्ति नाम भी सूचित किया है । यह नाम उन्होंने सम्भवतः इस कारण लिया जिससे पाणिनि द्वारा स्मृत प्राचीन वैयाकरण शाकटायन से भ्रान्ति न हो । इस शब्दानुशासन में कर्ता ने उन सब कमियों व त्रुटियों की पूर्ति कर दी है, जो मूल जैनेन्द्र व्याकरण में पाई जाती थी । अनेक बातें यहाँ मौलिक भी हैं । उदाहरणार्थ, आदि में ही इसके प्रत्याहार सूत्र पाणिनीय परम्परा से कुछ भिन्न हैं । ऋलृल् के स्थान पर केवल ऋक् पाठ है, क्योंकि ऋ और लृ में अभेद स्वीकार किया गया है । हयवरट् और लण् को मिलाकर, वट् को हटाकर यहां एक सूत्र बना दिया गया है, तथा उपान्त्य सूत्र श ष स र् में विसर्ग, जिहवामूलीय और उपध्मानीय का भी समावेश कर दिया गया है, इत्यादि । जैनेन्द्रसूत्र व महावृत्ति में 'प्रत्याहार' सूत्र पाणिनीय ही स्वीकार करके चला गया है; किन्तु जैनेन्द्र परम्परा की शब्दार्णवचन्द्रिका में ये शाकटायन 'प्रत्याहार' सूत्र स्वीकार किये गये हैं । जैनेन्द्र का टीकासाहित्य शाकटायन की कृति से बहुत उपकृत हुआ पाया जाता है; और जान पड़ता है इस अधिक पूर्ण व्याकरण के होते हुए भी उन्होंने जैनेन्द्र की परम्परा को अक्षुण्ण रखने के हेतु उसे इस आधार से अपने कालतक सम्पूर्ण बनाना आवश्यक समझा है ।
शाकटायन ने स्वयं अपने सूत्रों पर वृत्ति भी लिखी है, जिसे उन्होंने अपने समकालीन अमोघवर्ष के नामसे अमोघवृत्ति कहा है । इस वृत्ति का प्रमाण १८००० श्लोक माना गया है । इसका ६००० श्लोक प्रमाण संक्षिप्त रूप यक्षवर्मा कृत चितामणि नामक लघीयसीवृत्ति में मिलता है । इसके विषय में कर्ता ने स्वयं यह दावा किया है कि इन्द्र, चन्द्रादि शाब्दों ने जो भी शब्द का लक्षण कहा है, वह सब इसमें है; और जो यहां नहीं है, वह कहीं भी नहीं । इसमें गणपाठ, धातुपाठ, लिंगानुशासन, उणादि आदि निःशेष प्रकरण हैं । इस निःशेष विशेषण
द्वारा संभवतः उन्होंने अनेकशेष जैनेन्द्र व्याकरण की किया है । यक्षवर्मा का यह भी दावा है कि उनकी बालक व अबला जन भी निश्चय से एक वर्ष में समस्त वाङ्मय के वेत्ता बन
अपूर्णता की इस वृत्ति के
ओर संकेत अभ्यास से
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